
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किशोर न्याय बोर्ड (Juvenile Justice Board – JJB) के पास अपने पहले से दिए गए आदेशों की समीक्षा (Review) करने या उससे भिन्न रुख अपनाने का कोई अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि जेजे अधिनियम, 2015 के तहत बोर्ड को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।
यह फैसला जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने उस मामले में सुनाया, जहां बोर्ड ने पहले किशोर की जन्मतिथि स्कूल प्रमाणपत्र के आधार पर मानी, लेकिन बाद में मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर उसका प्रारंभिक मूल्यांकन कर उसे वयस्क के रूप में ट्रायल के योग्य ठहरा दिया।
कोर्ट ने कहा कि:
“एक बार जब बोर्ड ने दस्तावेज़ों के आधार पर किशोर की उम्र निर्धारित कर दी, तो उसके बाद मेडिकल बोर्ड की राय लेकर पहले के आदेश को पलटना कानूनन अवैध है। यह अपने ही आदेश की समीक्षा करने के बराबर है।”
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि:
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जेजे अधिनियम, 2015 में JJB को पुनर्विचार या समीक्षा की कोई वैधानिक शक्ति नहीं दी गई है।
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यह “ट्राइट लॉ” (Established Legal Principle) है कि कोई भी न्यायिक निकाय केवल उन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकता है जो कानून में स्पष्ट रूप से दी गई हों।
दस्तावेज बनाम मेडिकल राय
न्यायालय ने कहा कि:
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धारा 94(2) के तहत, स्कूल प्रमाणपत्र, जन्म पंजीकरण आदि की प्राथमिकता होती है।
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मेडिकल रिपोर्ट तभी उपयोग की जाती है जब कोई वैध दस्तावेज उपलब्ध न हो।
इस मामले में आरोपी के पास स्कूल प्रमाणपत्र मौजूद था, जिसमें जन्म तिथि 08.09.2003 दर्ज थी। इसके बावजूद JJB ने मेडिकल राय लेकर उसे 21 वर्ष का माना — जिसे कोर्ट ने “गंभीर कानूनी त्रुटि” बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को दी गई हाईकोर्ट की जमानत बरकरार रखी, यह कहते हुए कि:
“ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि आरोपी की रिहाई से स्वयं को या समाज को खतरा होगा। और प्रारंभिक मूल्यांकन जमानत के वैधानिक अधिकार को समाप्त नहीं करता।”
इस फैसले से यह साफ हो गया है कि:
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किशोर न्याय बोर्ड अपने निर्णयों को पलट नहीं सकता जब तक कोई स्पष्ट वैधानिक प्रावधान न हो।
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किशोरों के अधिकारों की रक्षा में दस्तावेजी साक्ष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
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यह निर्णय देशभर में किशोर न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को मजबूती देगा।