
नैनीताल: उत्तराखंड हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार के एक गंभीर मामले में सेंट्रल गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (CGST) विभाग के सुपरिंटेंडेंट योगेश चंद अग्रवाल को बड़ा झटका देते हुए उनकी दूसरी जमानत याचिका को सिरे से खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति रवींद्र मैठाणी की एकल पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आरोपी की गिरफ्तारी पूरी तरह संवैधानिक और वैधानिक प्रक्रिया के तहत की गई है तथा इसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी के समय आरोपी को लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार बताए गए थे, जो कानून की दृष्टि में पर्याप्त हैं। ऐसे में केवल तकनीकी आधारों पर जमानत दिए जाने का कोई औचित्य नहीं बनता।
क्या है पूरा मामला
यह मामला उधम सिंह नगर जिले के रुद्रपुर स्थित CGST कार्यालय से जुड़ा है, जहां योगेश चंद अग्रवाल सुपरिंटेंडेंट के पद पर कार्यरत थे। आरोप है कि उन्होंने एक स्थानीय व्यवसायी की पत्नी का निलंबित GST नंबर (GSTIN) दोबारा सक्रिय करने के एवज में ₹15,000 की रिश्वत की मांग की थी।
व्यवसायी ने इस मांग की शिकायत केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) से की। शिकायत के सत्यापन के बाद CBI ने पूरे मामले की जांच की और रिश्वत की पुष्टि होने पर जाल बिछाकर आरोपी अधिकारी को रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया।
गिरफ्तारी के बाद आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया, जहां से उसने पहले भी जमानत की कोशिश की थी, लेकिन उसे राहत नहीं मिली थी। इसके बाद आरोपी ने दूसरी जमानत याचिका हाईकोर्ट में दायर की।
बचाव पक्ष की दलीलें
योगेश चंद अग्रवाल की ओर से पेश अधिवक्ता ने हाईकोर्ट में तर्क दिया कि गिरफ्तारी के समय आरोपी को लिखित रूप में ‘गिरफ्तारी के आधार’ उपलब्ध नहीं कराए गए, जो कि संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
बचाव पक्ष ने यह भी कहा कि केवल यह बता देना कि आरोपी को किस मामले में गिरफ्तार किया जा रहा है, पर्याप्त नहीं है। कानून के अनुसार गिरफ्तारी के समय विस्तृत आधार लिखित में देना अनिवार्य है, ताकि आरोपी अपने बचाव की तैयारी कर सके।
अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट के कुछ पुराने निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि गिरफ्तारी की प्रक्रिया में थोड़ी सी भी चूक आरोपी को जमानत का अधिकार प्रदान कर सकती है।
CBI ने किया जोरदार विरोध
CBI की ओर से पेश अधिवक्ता ने बचाव पक्ष की दलीलों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने अदालत को बताया कि आरोपी को गिरफ्तारी के समय ही स्पष्ट रूप से बताया गया था कि उसे क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है, और गिरफ्तारी मेमो में अपराध का पूरा विवरण दर्ज था।
CBI ने सुप्रीम कोर्ट के कई ताज़ा और प्रासंगिक फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि ‘गिरफ्तारी के कारण’ और ‘गिरफ्तारी के आधार’ में कानूनी अंतर होता है। इस मामले में गिरफ्तारी मेमो में जिस तरह से आरोप और धाराएं दर्ज की गई हैं, वह संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करता है।
CBI ने यह भी कहा कि आरोपी एक जिम्मेदार सरकारी पद पर रहते हुए जनता से जुड़ी सेवा में था और उस पर भ्रष्टाचार जैसा गंभीर आरोप है, ऐसे में उसे जमानत देना जांच को प्रभावित कर सकता है।
हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्ति रवींद्र मैठाणी ने अपने आदेश में कहा कि—
- आरोपी की गिरफ्तारी कानून के अनुसार की गई
- गिरफ्तारी के समय आरोपी को लिखित में आधार बताए गए
- संविधान के अनुच्छेद 22(1) का कोई उल्लंघन नहीं हुआ
- केवल तकनीकी दलीलों के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती
अदालत ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में न्यायालय को सावधानी और सख्ती बरतनी होती है, क्योंकि ऐसे अपराध सीधे तौर पर प्रशासनिक व्यवस्था और जनता के विश्वास को प्रभावित करते हैं।
भ्रष्टाचार मामलों पर सख्त रुख
हाईकोर्ट के इस फैसले को उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के मामलों में कड़ा संदेश माना जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह आदेश साफ करता है कि अदालतें अब केवल प्रक्रियागत खामियों के आधार पर राहत देने के बजाय मामले की गंभीरता और सार्वजनिक हित को प्राथमिकता दे रही हैं।
इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि सरकारी पद पर बैठे अधिकारियों द्वारा रिश्वतखोरी के मामलों में न्यायपालिका सख्त रुख अपनाने के मूड में है।
आगे की कार्रवाई
दूसरी जमानत याचिका खारिज होने के बाद अब योगेश चंद अग्रवाल को निचली अदालत में ट्रायल का सामना करना होगा। CBI द्वारा दाखिल चार्जशीट और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर आगे की न्यायिक प्रक्रिया जारी रहेगी। यदि आरोप सिद्ध होते हैं, तो आरोपी को कठोर सजा का सामना करना पड़ सकता है।



