
नई दिल्ली, 14 नवंबर: जहाँ एक ओर राष्ट्रीय राजधानी खतरनाक स्तर की वायु प्रदूषण की स्थिति से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवंटित धन का बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं किया गया। सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त जानकारी बताती है कि एमसीडी ने पिछले दो वित्तीय वर्षों में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) के लिए आवंटित 28.77 करोड़ रुपये खर्च नहीं किए। यह खुलासा सवाल उठाता है कि जब दिल्ली की हवा लगातार ‘बेहद खराब’ और ‘गंभीर’ श्रेणी में दर्ज हो रही है, तब प्रदूषण घटाने के लिए उपलब्ध संसाधनों का उपयोग क्यों नहीं हुआ।
सेंट्रल मिनिस्ट्री ऑफ एनवायरनमेंट को एमसीडी द्वारा भेजे गए उपयोग प्रमाणपत्रों और आरटीआई आवेदन के जवाब के अनुसार, वित्त वर्ष 2023–24 में नगर निगम ने अपने पास पिछले वर्ष से बची हुई 26.6 करोड़ रुपये की राशि के साथ काम शुरू किया था। लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि प्रदूषण रोकथाम परियोजनाओं के लिए आवंटित निधि का बड़ा हिस्सा अप्रयुक्त रह गया।
दिल्ली की हवा खतरनाक, लेकिन प्रोजेक्ट लागू नहीं हुए
दिल्ली में अक्टूबर से जनवरी तक वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) आमतौर पर 350–450 के बीच रहता है, जो ‘गंभीर’ श्रेणी में आता है। ऐसे में धूल नियंत्रण, कचरा प्रबंधन, निर्माण स्थलों पर निगरानी, सड़क वैक्यूमिंग, मैकेनिकल स्वीपिंग, एंटी-स्मॉग गन, ग्रीन कवर विस्तार जैसी परियोजनाओं की अत्यधिक आवश्यकता होती है।
केंद्र सरकार ने NCAP के तहत नगरीय निकायों और राज्यों को विशेष फंड आवंटित किए, ताकि PM2.5 और PM10 में 2024 तक 20–30% तक कमी लाई जा सके।
लेकिन निधि खर्च न कर पाने का अर्थ है कि योजनाओं का क्रियान्वयन या तो बहुत धीमा रहा या बिल्कुल नहीं हुआ।
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, यह स्थिति दिल्ली जैसे महानगर के लिए चिंताजनक है, क्योंकि हवा की गुणवत्ता में सुधार के लिए “ग्राउंड एक्शन” उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि नीतिगत हस्तक्षेप।
एमसीडी के पास क्यों पड़ी रह गई राशि?
आरटीआई में सामने आई जानकारी दर्शाती है कि निधि न खर्च होने के कई प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं —
1. परियोजनाओं के निविदा (टेंडर) में देरी
अक्सर नगर निगम के भीतर अलग-अलग विभागों के समन्वय की कमी के कारण टेंडरिंग प्रक्रिया बहुत धीमी हो जाती है। परिणामस्वरूप, वित्तीय वर्ष समाप्त हो जाता है लेकिन परियोजनाएँ समय से शुरू ही नहीं हो पातीं।
2. प्रशासनिक और तकनीकी स्वीकृतियों में लंबी प्रक्रिया
कई परियोजनाओं को स्वीकृति मिलते-मिलते महीनों लग जाते हैं। कुछ मामलों में तकनीकी सलाहकारों की रिपोर्टें भी समय पर तैयार नहीं की जा सकीं।
3. राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर अनिश्चितता
एमसीडी के पुनर्एकीकरण, प्रशासनिक ढाँचे में बदलाव और नेतृत्व की बार-बार अदला-बदली से कार्यों की निरंतरता पर असर पड़ा।
4. प्राथमिकताओं का अभाव
दिल्ली में प्रदूषण नियंत्रण के लिए विभिन्न एजेंसियाँ काम करती हैं—DPCC, PWD, MCD, SDMC, EDMC, केंद्र सरकार की एजेंसियाँ और दिल्ली सरकार। कई बार भूमिकाओं के ओवरलैप और जवाबदेही न तय होने के कारण निधि का पूरा उपयोग नहीं हो पाता।
सबसे बड़ा सवाल: जब पैसा था, तो प्रदूषण क्यों नहीं घटा?
राजधानी में दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार दोनों ग्रैप (GRAP) नियम लागू करने और आपातकालीन कदम उठाने की घोषणाएँ करती रहती हैं। स्कूल बंद करने से लेकर निर्माण कार्य रोकने तक कई कड़े कदम उठाए जाते हैं। लेकिन इन दीर्घकालिक उपायों की सफलता तभी संभव है जब स्थानीय निकाय अपने स्तर पर निरंतर काम करें।
अगर 29 करोड़ रुपये से ये काम हो सकते थे:
- विभिन्न ज़ोन में एंटी-स्मॉग गन की संख्या दोगुनी
- 30–35 अतिरिक्त मैकेनिकल स्वीपिंग वाहनों की खरीद
- 150 किलोमीटर से अधिक सड़कों की नियमित धूल सफाई
- कचरा उठाने और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का सुदृढ़ीकरण
- वृक्षारोपण और ग्रीन बेल्ट विस्तार
- प्रदूषण की निगरानी के लिए 20–25 अतिरिक्त AQI मॉनिटरिंग स्टेशन
लेकिन आरटीआई बताती है कि इन मदों में निधि का उपयोग ‘न्यूनतम’ स्तर पर रहा।
विपक्ष का हमला—“यह जनता की सेहत के साथ खिलवाड़”
दिल्ली में विपक्षी दलों ने इस खुलासे पर एमसीडी को कठघरे में खड़ा किया है।
कांग्रेस और आप दोनों के प्रतिनिधियों का कहना है कि नगर निगम की निष्क्रियता का सीधा असर बच्चों, बुजुर्गों और मरीजों की सेहत पर पड़ा है।
आप नेताओं ने कहा:
“दिल्ली की हवा ज़हर हो चुकी है, लोग मास्क लगाने को मजबूर हैं, लेकिन एमसीडी के पास पड़ा बजट भी खर्च नहीं हो रहा—यह प्रशासनिक विफलता ही नहीं, बल्कि जनता की सेहत से खिलवाड़ है।”
क्या कहती है एमसीडी?
एमसीडी के अधिकारियों का कहना है कि:
- कई परियोजनाएँ “प्रगति पर” हैं
- कुछ कार्यों की निविदाएँ अभी हाल में ही फाइनल की गई हैं
- नई मशीनें खरीदने और बुनियादी ढाँचा मजबूत करने की प्रक्रिया जारी है
हालांकि आरटीआई में दी गई जानकारी इस दावे को पूरी तरह मजबूत नहीं करती।
विशेषज्ञों की राय — ‘फंड का उपयोग न होना, सिस्टम की गंभीर समस्या दिखाता है’
दिल्ली के वायु प्रदूषण अध्ययन से जुड़े पर्यावरण शोधकर्ता डॉ. विवेक तिवारी का मानना है कि:
“दिल्ली में प्रदूषण एक आपातकालीन स्थिति है। यदि स्थानीय निकाय उपलब्ध बजट का इस्तेमाल ही नहीं करेंगे तो PM2.5 और PM10 में कमी लाने का लक्ष्य सिर्फ कागज़ों में रह जाएगा।”
उनके अनुसार, फंड का न खर्च होना इस बात का संकेत है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए प्रशासनिक ढाँचा अभी भी मजबूत नहीं है।
हवा ज़हरीली, पैसा अनछुआ; समाधान के लिए जवाबदेही जरूरी
दिल्ली जैसे महानगर में, जहाँ हवा की वजह से सालाना हजारों लोगों की स्वास्थ्य स्थिति खराब होती है, वहाँ प्रदूषण नियंत्रण के लिए प्राप्त निधि का निष्क्रिय रह जाना बेहद गंभीर मुद्दा है। आरटीआई का यह खुलासा बताता है कि सिर्फ नीतियाँ बनाने और फंड आवंटित करने से समस्या हल नहीं होगी—जवाबदेही, पारदर्शिता और समयबद्ध क्रियान्वयन उतना ही जरूरी है।
जब तक नगर निगम अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से नहीं निभाएगा, दिल्ली की हवा साफ होने के बजाय और बिगड़ने का खतरा बना रहेगा।



