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बिहार में फिर चला गहलोत का ‘जादू’ — एक रात में महागठबंधन को दोबारा किया एकजुट

जयपुर/पटना: राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ‘राजनीति का जादूगर’ यूं ही नहीं कहा जाता। उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया है कि कांग्रेस के भीतर जब संकट गहराता है, तब गहलोत जैसे अनुभवी नेता ही उसे सुलझाने का हुनर रखते हैं। बिहार में महागठबंधन के भीतर चल रही खींचतान और असंतोष के बीच, गहलोत ने अपनी राजनीतिक समझ और संवाद कौशल से कुछ ही घंटों में तस्वीर पलट दी।

बुधवार शाम गहलोत पटना पहुंचे और देर रात तक उन्होंने लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव से मुलाकात की। इसके अलावा उन्होंने महागठबंधन के अन्य घटक दलों — वाम दलों और कांग्रेस नेताओं से भी बैठक की। सिर्फ एक रात की कूटनीति के बाद, गुरुवार सुबह पटना में एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें सभी सहयोगी दल एक मंच पर नजर आए और एकजुटता का संदेश दिया।

राजनीतिक हलकों में इसे गहलोत की ‘शांत रणनीति’ का परिणाम माना जा रहा है — बिना बयानबाज़ी, बिना दबाव, सिर्फ संवाद और भरोसे के जरिए राजनीतिक समीकरणों को फिर से साध लेना।


सादगी के पीछे छिपा कूटनीतिक दिमाग

अशोक गहलोत का व्यक्तित्व हमेशा से सादगी और मृदुभाषिता के लिए जाना जाता है। लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उनकी यही सादगी असल में उनकी सबसे बड़ी ताकत है।
गहलोत का तरीका टकराव का नहीं, बल्कि बातचीत और संतुलन का है। चाहे राजस्थान की सियासत में सचिन पायलट संकट हो या अब बिहार में महागठबंधन की दरार, गहलोत हमेशा समाधान खोजने वाले नेता के रूप में उभरे हैं।

बिहार में कांग्रेस और राजद के बीच सीटों और नेतृत्व को लेकर असहमति बढ़ रही थी। कई बार संकेत मिलने लगे थे कि महागठबंधन टूट सकता है। ऐसे में पार्टी हाईकमान ने गहलोत को ‘ट्रबलशूटर’ की भूमिका में भेजा। गहलोत ने बिना किसी बयानबाजी के सभी नेताओं को व्यक्तिगत रूप से समझाया — और 24 घंटे के भीतर सभी मतभेद सुलझा दिए।


राजनीति के जादूगर की पहचान

कांग्रेस में गहलोत की छवि हमेशा एक ऐसे नेता की रही है जो संकट की घड़ी में पार्टी को बचा लेता है। 1980 के दशक में इंदिरा गांधी ने जब उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाया था, तब से ही गहलोत कांग्रेस के भरोसेमंद संकटमोचक बनकर उभरे।
राजस्थान की राजनीति में भी उन्होंने बार-बार खुद को साबित किया। चाहे 2008 में बहुमत की कमी के बावजूद सरकार बनाना हो या 2018 में पायलट के बगावत संकट को शांत करना, गहलोत हमेशा संयम और रणनीति से जीत हासिल करते रहे हैं। राजस्थान के कांग्रेस नेताओं का कहना है कि “गहलोत को आंकड़े नहीं, रिश्ते गिनने आते हैं। यही कारण है कि जहां भी संवाद की गुंजाइश होती है, वहां वे असंभव को संभव कर देते हैं।”


‘भंवरी देवी केस’ और निर्णायक फैसले

गहलोत के राजनीतिक जीवन में एक बड़ा मोड़ भंवरी देवी केस के दौरान आया था। उस वक्त कांग्रेस में लंबे समय से मांग उठ रही थी कि कोई जाट नेता मुख्यमंत्री बने। महिपाल मदेरणा को इसका सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था। लेकिन भंवरी देवी केस में मदेरणा का नाम सामने आने के बाद गहलोत ने बिना किसी राजनीतिक दबाव के जांच सीबीआई को सौंपने का फैसला लिया।
यह कदम उनके प्रशासनिक कठोरता और नैतिक राजनीति की पहचान बना। कई विश्लेषकों के मुताबिक, उस फैसले ने न केवल मदेरणा का राजनीतिक करियर खत्म किया, बल्कि गहलोत की छवि को ‘निर्णायक और निष्पक्ष’ नेता के रूप में और मजबूत किया।


बिहार मिशन पर हाईकमान का भरोसा

बिहार में कांग्रेस लगातार सीमित उपस्थिति के बावजूद महागठबंधन का एक अहम घटक रही है। हाल के दिनों में सीट शेयरिंग और नेतृत्व को लेकर विवाद बढ़ने से गठबंधन पर संकट के बादल मंडरा रहे थे।
इसी बीच पार्टी हाईकमान ने अशोक गहलोत को पटना भेजने का फैसला लिया — क्योंकि उन्हें ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है जो विरोधाभासी विचारों वाले नेताओं को एक मंच पर लाने की क्षमता रखते हैं।

राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि गहलोत की “संवाद आधारित राजनीति” ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। वे बयानबाज़ी या दबाव की जगह बातचीत, धैर्य और भरोसे से मसले सुलझाते हैं। यही वजह है कि महागठबंधन में गहराता संकट उनके आने के बाद लगभग समाप्त हो गया।


कांग्रेस के भीतर ‘संतुलन’ की मिसाल

गहलोत का करियर इस बात का प्रमाण है कि राजनीति में संवाद और धैर्य की शक्ति आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने हमेशा संगठन के भीतर संतुलन बनाए रखा है। चाहे राजस्थान में पायलट खेमे को संभालना हो या पार्टी नेतृत्व के निर्देशों का पालन, गहलोत ने कभी अपने अनुभव का बोझ नहीं बनने दिया।

दिलचस्प बात यह है कि बिहार मिशन से पहले गहलोत को राजस्थान में कांग्रेस के अंदरुनी विवाद सुलझाने का भी दायित्व मिला था। उस समय भी उन्होंने पार्टी को एकजुट रखा और चुनावी तैयारियों को पटरी पर लौटाया।


महागठबंधन को मिला नया संजीवनी शॉट

पटना में गहलोत की सक्रियता के बाद अब महागठबंधन में नई ऊर्जा देखी जा रही है। संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में तेजस्वी यादव ने भी कहा कि “हम सब साथ हैं, हमारा लक्ष्य भाजपा को रोकना और बिहार की जनता के अधिकारों की रक्षा करना है।” कांग्रेस नेताओं ने भी स्पष्ट किया कि सीटों को लेकर अब कोई विवाद नहीं है और सभी दल साझा रणनीति पर आगे बढ़ेंगे।

राजनीतिक विश्लेषक इसे गहलोत की “साइलेंट डिप्लोमेसी” का नतीजा मान रहे हैं। बिना शोर-शराबे, बिना बयानबाजी, वे उन धागों को जोड़ जाते हैं जो बाकी नेता अनदेखा कर देते हैं।


भविष्य की राजनीति पर असर

गहलोत के इस कदम से न केवल बिहार की राजनीति में महागठबंधन को नई जान मिली है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस नेतृत्व को भी एक संदेश गया है — कि संकट की घड़ी में अभी भी गहलोत जैसे नेता संगठन के लिए अपरिहार्य हैं।

राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि आने वाले महीनों में गहलोत को पार्टी के संगठनात्मक पुनर्गठन में बड़ी भूमिका दी जा सकती है। उनकी बिहार में भूमिका ने यह साबित कर दिया है कि गहलोत न केवल राजस्थान, बल्कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस के ‘संतुलनकारी चेहरा’ बनकर उभर रहे हैं।

बिहार की राजनीतिक सरगर्मियों के बीच अशोक गहलोत का यह दौरा कांग्रेस के लिए बड़ी राहत लेकर आया है।
जहां एक ओर महागठबंधन टूटने की अटकलें तेज थीं, वहीं अब एकता और तालमेल की नई तस्वीर दिख रही है।
एक बार फिर गहलोत ने साबित कर दिया —सादगी और संवाद से भी राजनीति में बड़ा जादू किया जा सकता है।

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