
नई दिल्ली: राष्ट्रपति और राज्यपालों के संवैधानिक अधिकारों से जुड़े एक ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ आज अहम फैसला सुना सकती है। अदालत यह तय करेगी कि क्या न्यायपालिका राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए यह बाध्यकारी समयसीमा तय कर सकती है कि वे राज्य की ओर भेजे गए विधेयकों पर कितने समय में निर्णय लें। यह फैसला देश की संघीय संरचना, केंद्र–राज्य संबंधों और राजनैतिक–संवैधानिक प्रक्रिया पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।
इस अत्यंत महत्वपूर्ण सुनवाई की अध्यक्षता चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बी.आर. गवई कर रहे हैं। संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं। यह मामला इसलिए भी विशेष महत्व रखता है क्योंकि यह राज्यपालों द्वारा विधेयकों की मंजूरी में हो रही देरी जैसी लगातार उठ रही शिकायतों पर न्यायिक मार्गदर्शन तय करेगा, और यह स्पष्ट करेगा कि क्या संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों पर न्यायपालिका कोई समय सीमा लागू कर सकती है।
इस निर्णय की पृष्ठभूमि तमिलनाडु मामले से जुड़ी है। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की एक बेंच ने 8 अप्रैल को फैसला दिया था कि राज्यपाल किसी भी विधेयक पर अनिश्चितकाल तक ‘लंबित’ नहीं रख सकते और उन्हें अधिकतम तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा—चाहे वह विधेयक को पास करना हो, उसे रोकना हो या राष्ट्रपति को भेजना हो। बाद में इस मामले के अत्यधिक संवैधानिक महत्व को देखते हुए इसे बड़ी संविधान पीठ के समक्ष भेजा गया।
फैसले का संबंध राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से पूछे गए 14 सवालों से भी है। राष्ट्रपति ने स्पष्ट राय मांगी है कि क्या न्यायपालिका राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों के कामकाज—विशेष रूप से विधेयकों पर निर्णय—के लिए समयबद्ध दिशा-निर्देश निर्धारित कर सकती है। राष्ट्रपति द्वारा यह संदर्भ भेजे जाने का मुख्य कारण यह था कि देश के कई राज्यों में राज्यपालों और सरकारों के बीच विधेयकों को लेकर टकराव की स्थिति पैदा होती रही है, और इस पर एकीकृत संवैधानिक व्याख्या जरूरी हो गई थी।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला भविष्य में राज्यपाल–सरकार संबंधों को अधिक स्पष्ट और सुगठित करेगा। यदि अदालत समय सीमा को वैध ठहराती है, तो राज्यपालों की भूमिका में अधिक जवाबदेही आएगी। वहीं यदि अदालत इसे संवैधानिक पदों की स्वतंत्रता के खिलाफ मानती है, तो यह राज्यपालों और राष्ट्रपति के विशिष्ट अधिकार क्षेत्र को मजबूत करेगा।
इस ऐतिहासिक फैसले पर देशभर की निगाहें टिकी हैं, क्योंकि यह निर्णय भारत की संवैधानिक संरचना और लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली में एक नया मील का पत्थर साबित हो सकता है।



