
उत्तराखंड में सुशासन और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए विभिन्न संवैधानिक और विधिक आयोग कार्यरत हैं। इनमें उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (UKPSC) और उत्तराखंड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसे संस्थान प्रमुख हैं। इन आयोगों की कार्यप्रणाली, अधिकार क्षेत्र और कार्यकाल भिन्न होते हैं, जिनका निर्धारण संविधान और संबंधित अधिनियमों द्वारा किया जाता है। आइए इनकी संरचना और कार्यकाल पर विस्तार से दृष्टि डालते हैं।
- उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (UKPSC)
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग की स्थापना वर्ष 2001 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 315 के अंतर्गत की गई थी। यह आयोग राज्य सरकार के अधीन समूह-‘ग’ एवं ‘घ’ (Group C & D) की नौकरियों के लिए परीक्षाएं आयोजित करता है।
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल छह वर्ष अथवा 65 वर्ष की आयु (जो भी पहले हो) तक होता है।
यह कार्यकाल इसलिए लंबा रखा गया है ताकि आयोग की स्वतंत्रता और स्थायित्व सुनिश्चित किया जा सके। लंबे कार्यकाल से यह भी सुनिश्चित होता है कि आयोग राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्र रहकर निष्पक्ष तरीके से कार्य करे।
कार्य:
- राज्य की सिविल सेवाओं में नियुक्तियों के लिए परीक्षाएं आयोजित करना
- पदोन्नति, स्थानांतरण और विभागीय परीक्षाओं में परामर्श देना
- चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता बनाए रखना
- उत्तराखंड राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग
यह आयोग बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 के अंतर्गत गठित किया गया है। इसका उद्देश्य बच्चों के अधिकारों की रक्षा, निगरानी और संवर्धन करना है।
बाल आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष अथवा 65 वर्ष की आयु (जो भी पहले हो) निर्धारित है।
इसका कार्यकाल अपेक्षाकृत छोटा होने का मुख्य कारण यह है कि ये आयोग आमतौर पर सामाजिक क्षेत्रों से जुड़े होते हैं और इनमें गति एवं लचीलापन अपेक्षित होता है। अक्सर ये आयोग जागरूकता, निरीक्षण और सिफारिशों तक सीमित रहते हैं, इसीलिए कार्यकाल छोटा होता है।
कार्य:
- बच्चों से जुड़े अधिकारों का संरक्षण
- बाल शोषण, बाल विवाह, बाल श्रम जैसे मामलों की निगरानी
- सरकार को सिफारिशें देना और शिकायतों पर कार्रवाई करना
कार्यकाल में अंतर का कारण
राज्य आयोगों का कार्यकाल उनकी कार्य प्रकृति, स्वतंत्रता की आवश्यकता, और कानूनी अधिकार क्षेत्र पर निर्भर करता है। जैसे कि लोक सेवा आयोग का कार्य सीधे प्रशासनिक ढांचे को प्रभावित करता है, इसलिए इसका कार्यकाल लंबा और अधिक सुरक्षित रखा गया है। वहीं सामाजिक कल्याण से जुड़े आयोगों का कार्यकाल छोटा होता है ताकि वे अधिक सक्रिय और त्वरित प्रतिक्रिया वाले बने रहें।
राज्य आयोगों की संरचना और कार्यकाल का निर्धारण उनके कार्य की प्रकृति और महत्व के अनुसार किया जाता है। उत्तराखंड में ये आयोग शासन के विभिन्न आयामों को सुचारू रूप से संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में, इनकी पारदर्शिता, जवाबदेही और कार्यकाल पर जन-जागरूकता आवश्यक है।
🧾 उत्तराखंड राज्य आयोगों का कार्यकाल और कारण – सारणीबद्ध विवरण
क्रम | आयोग का नाम | कार्यकाल / आयुसीमा | कार्य का प्रकार | कार्यकाल का कारण (6 साल / 3 साल क्यों?) |
1 | उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (UKPSC) | 6 वर्ष / 65 वर्ष | भर्ती परीक्षाएं, चयन प्रक्रिया | प्रशासनिक स्वतंत्रता व स्थायित्व आवश्यक, निर्णय की पारदर्शिता हेतु लंबा कार्यकाल |
2 | बाल अधिकार संरक्षण आयोग | 3 वर्ष / 65 वर्ष | बाल कल्याण, निरीक्षण, सिफारिशें | कार्य अधिक सामाजिक व गतिशील, ताजगी और विविध दृष्टिकोणों की जरूरत |
3 | महिला आयोग | 3 वर्ष | महिला सुरक्षा, अधिकारों की निगरानी | सामाजिक मामलों में लचीलापन व जवाबदेही जरूरी, नियमित बदलाव से प्रभावी कामकाज |
4 | अनुसूचित जाति आयोग | 3 वर्ष | SC अधिकार संरक्षण | जनप्रतिनिधित्व और सामाजिक संतुलन हेतु छोटे कार्यकाल, समीक्षा में आसानी |
5 | मानवाधिकार आयोग | 5 वर्ष / 70 वर्ष | मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच | अर्ध-न्यायिक कार्य, स्वतंत्र जांच हेतु अपेक्षाकृत लंबा कार्यकाल |
6 | सूचना आयोग | 5 वर्ष / 65 वर्ष | RTI से संबंधित मुद्दे | विधिक प्रक्रिया में स्थायित्व जरूरी, तकनीकी व संवेदनशील मामलों की निरंतरता हेतु |
संवैधानिक आयोग (जैसे लोक सेवा आयोग) को स्वतंत्र और दीर्घकालिक दृष्टि से निर्णय लेने की जरूरत होती है, इसलिए 6 साल का कार्यकाल।
सामाजिक कल्याण आयोग (जैसे बाल, महिला, अनुसूचित जाति आयोग) का कार्य अधिक जनसंपर्क व निरीक्षण आधारित होता है, जहां नियमित बदलाव गतिशीलता और प्रासंगिकता बनाए रखता है – इसलिए 3 साल का कार्यकाल।
अर्ध-न्यायिक आयोग (मानवाधिकार, सूचना आयोग) को सत्यापन व जांच में समय लगता है, इसलिए इन्हें मध्यम अवधि का कार्यकाल मिलता है।