प्राकृतिक स्रोत जैसे जल, मिट्टी, भूमि अक्षय नहीं हैं, मानव का भाग्य और भविष्य इन्हीं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर ही निर्भर है: उपराष्ट्रपति
उपराष्ट्रपति ने देश के एक बड़े भाग में, नमी और सूक्ष्म जैविक पदार्थों की कमी के कारण नष्ट होती भूमि पर गंभीर चिंता जताई
पारंपरिक ज्ञान के आधार पर प्राकृतिक जैविक खेती से न केवल कृषि की बढ़ती लागत को कम किया जा सकता है बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी: उपराष्ट्रपति
छोटे और सीमांत किसानों के लिए जैविक प्राकृतिक खेती विशेष लाभकारी : उपराष्ट्रपति
जागरूकता बढ़ने के साथ विश्वभर में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ी है : उपराष्ट्रपति
सतत और स्थायी विकास के लिए, प्राकृतिक कृषि जरूरी है : उपराष्ट्रपति
संसद, राजनैतिक दल और नीति निर्माता संस्थान भूमि संरक्षण और कृषि संबंधी विषयों को प्राथमिकता दें: श्री नायडु
उपराष्ट्रपति ने कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि अनुसंधान संस्थानों से पाठ्यक्रमों में प्राकृतिक जैविक खेती को शामिल करने का आग्रह किया
उपराष्ट्रपति द्वारा भूमि सुपोषण और संरक्षण के राष्ट्रव्यापी अभियान पर आधारित “भूमि सुपोषण” संकलन का लोकार्पण
श्री नायडु ने कहा कि कृषि और ग्रामीण विकास संबंधी प्रकाशनों का अनुवाद हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में हो, जिससे आम किसान उनसे लाभान्वित हो सकें
उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने कहा कि “यह समझना होगा कि प्राकृतिक स्रोत जैसे जल, मिट्टी, भूमि अक्षय नहीं हैं, न ही इन्हें फिर से बनाया जा सकता है। मानव का भाग्य और भविष्य इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर ही निर्भर है।” उपराष्ट्रपति ने कहा कि सतत और स्थायी विकास के लिए, प्राकृतिक कृषि जरूरी है। इस संदर्भ में उन्होंने अपेक्षा की कि संसद, राजनैतिक दल तथा नीति निर्माता संस्थान, भूमि संरक्षण तथा कृषि संबधी विषयों को प्राथमिकता देंगे।
उपराष्ट्रपति आज नई दिल्ली में अपने निवास पर अक्षय कृषि परिवार द्वारा भूमि सुपोषण और संरक्षण पर चलाए गए राष्ट्रव्यापी अभियान पर आधारित पुस्तक “भूमि सुपोषण” का लोकार्पण कर रहे थे। उन्होंने कहा कि कृषि और ग्रामीण विकास विषयों से संबंधित प्रकाशनों का अनुवाद हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में होना चाहिए जिससे आम किसान उनसे लाभान्वित हो सकें।
इस अवसर पर श्री नायडु ने, देश के एक बड़े भाग में, विशेषकर पश्चिमी और दक्कन के क्षेत्र में मिट्टी के सूख कर रेतीली बनने पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 15 टन मिट्टी नष्ट हो रही है। उन्होंने कहा कि यह आवश्यक है कि भूमि के स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाये, उसे पुनः स्वस्थ बनाया जाये। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के अधिक प्रयोग से मिट्टी विषाक्त हो जाती है और उसके अंदर के उपजाऊ जैविक तत्व समाप्त हो जाते हैं। देश के अधिकांश राज्यों में अधिकांश भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। उन्होंने कहा कि फसलों की सिंचाई के लिए भूजल का निर्बाध दोहन हो रहा है। भूजल का स्तर नीचे आ गया है और मिट्टी की नमी कम हो गई है जिससे उसके जैविक अवयव समाप्त हो रहे हैं। नमी और सूक्ष्म जैविक पदार्थों की कमी के कारण मिट्टी रेत में बदल रही है।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए, प्राकृतिक जैविक खेती आशा की नई किरण है। पारंपरिक ज्ञान के आधार पर स्थानीय संसाधनों, जैसे गोबर, गौ मूत्र आदि की सहायता से न केवल कृषि की बढ़ती लागत को कम किया जा सकता है बल्कि भूमि की जैविक संरचना को बचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि देशी खाद और कीटनाशक, पारंपरिक पद्धति से कम लागत में ही बनाए जा सकते हैं, जिससे किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि यद्यपि एक कालखंड में, देश की खाद्य सुरक्षा में हरित क्रांति का अवश्य महत्वपूर्ण योगदान रहा है लेकिन समय के साथ, भूमि की पैदावार को बढ़ाने के लिए रसायनिक खादों, कीटनाशकों आदि की खपत बढ़ती गई है, “जिससे कृषि, भूमि क्षरण के दुष्चक्र में फंस गई है और किसान कर्ज़ के।” उन्होंने कहा कि प्राकृतिक जैविक खेती ही इसका समाधान देती है।
मिट्टी के स्वास्थ्य को बचाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयासों पर संतोष व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति ने सरकार द्वारा मिट्टी के स्वास्थ्य को बारह (12) पैमानों पर मापने के लिए, मृदा स्वास्थ्य कार्ड के व्यापक पैमाने पर प्रचलित किए जाने का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मिट्टी की जांच के लिए प्रयोगशालाओं के नेटवर्क का निरंतर विस्तार किया जा रहा है। इस वर्ष के बजट में गंगा नदी के किनारों पर रासायनिक खेती के स्थान पर प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने का प्रावधान किया गया है। पारंपरिक कृषि विकास योजना के तहत प्राकृतिक जैविक खेती की विभिन्न पद्धतियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
देश में लगभग तैंतालीस (38) लाख हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही है जिसमें लगभग छह (6) लाख किसान जुड़े हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में जैविक खेती का क्षेत्रफल सर्वाधिक है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि यह विशेष संतोष का विषय है कि देश के पर्वतीय प्रांतों जहां खेती योग्य भूमि कम है और जोत का आकार भी छोटा होता है, वहां जैविक खेती को किसानों ने सफलतापूर्वक अपनाया है। इससे साबित होता है कि देश के बहुसंख्यक छोटे और सीमांत किसानों के लिए जैविक प्राकृतिक खेती विशेष लाभकारी है। उन्होंने कहा कि जैविक खेती अपना कर छोटे किसान भी अपनी लागत कम कर सकते हैं, इससे उनकी आमदनी भी बढ़ेगी।
प्रायः किसानों को जैविक प्राकृतिक कृषि को लेकर शंका रहती है कि इससे पैदावार कम हो जायेगी। उन्होंने कहा कि देश में रासायनिक खेती की हानियों और जैविक खाद्यान्न एवं फलों के लाभ के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, साथ ही जैविक उत्पादों की मांग भी बढ़ रही है।
श्री नायडु ने कहा कि कृषि, हमारी संस्कृति, प्रकृति से अलग नहीं हो सकती। उन्होंने कृषि अनुसंधान संस्थानों से, भारतीय परंपरा में कृषि और ग्रामीण व्यवस्था पर लिखे गए प्रामाणिक ग्रंथों जैसे : पाराशर कृत कृषि पराशर, पाराशर तंत्र, सुरपाल कृत वृक्षायुर्वेद, मलयालम में परशुराम कृत कृषि गीता, सारंगधर कृत उपवनविनोद आदि पर शोध करने और किसानों को हमारी प्राचीन कृषि पद्धति से परिचित कराने का आग्रह किया। उपराष्ट्रपति ने कृषि विश्विद्यालयों से अपेक्षा की कि वे जैविक खेती और प्राकृतिक खेती को अपने पाठ्यक्रमों में शामिल करें तथा कृषि के क्षेत्र में इनोवेशन और उद्यमिता को प्रोत्साहित करें।
इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने कहा कि भारत में स्थानीय परिवेश और ऋतुओं के अनुसार अनाजों और आहारों की समृद्ध परंपरा रही है जिसे हम आधुनिकता के प्रभाव में धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। उन्होंने आग्रह किया कि हम अपनी प्राचीन खाद्यान्न परंपरा को जीवित करें।
इस अवसर पर केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि एक कालखंड था, जब देश में खाद्यान्न का संकट था, जिसके चलते रासायनिक खेती के साथ हरित क्रांति हुई लेकिन अब अलग स्थिति है। हमारा देश अधिकांश खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में दुनिया में नंबर एक या नंबर दो पर है और कृषि निर्यात भी बढ़ रहा है, जो सालाना चार लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। बीच के कालखंड में भौतिकवादी सोच के परिणामस्वरूप भूमि के स्वास्थ्य की चिंता ओझल होती गई, लेकिन अब देश की आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने जा रहे हैं, ऐसे अवसर पर आवश्यक है कि भूमि के सुपोषण को कायम रखा जाएं।
श्री तोमर ने कहा कि सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों से अब देश में जैविक खेती बढ़ रही है, जिसका रकबा अड़तीस लाख हेक्टेयर तक पहुंच चुका है, कृषि निर्यात में भी इन उत्पादों का अधिक योगदान है। इसके साथ ही, केंद्र सरकार प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति पर जोर दे रही है। प्राकृतिक खेती को मिशन मोड में बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रवृत्त है, वहीं इसे अपनाए जाने के प्रति पूरी गंभीरता से, समग्र दृष्टिकोण से प्रयत्न किए जा रहे हैं। प्राकृतिक खेती को कृषि पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाएं, इस संबंध में एक समिति बनाई गई है। उन्होंने अक्षय कृषि परिवार की पहल की सराहना करते हुए कहा कि इसी तरह से एक भारत-श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए सामाजिक संस्थाओं की सहभागिता जरूरी है।
पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर केंद्रीय कृषि एवं कृषक कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र तोमर सहित अनेक कृषि वैज्ञानिक, कृषि संगठनों के प्रतिनिधि तथा अन्य गणमान्य अतिथि उपस्थित रहे।
उपराष्ट्रपति के भाषण का मूलपाठ निम्नवत है –
“भूमि सुपोषण”, राष्ट्रव्यापी भूमि सुपोषण और संरक्षण अभियान के अनुभवों पर आधारित इस संकलन का लोकार्पण करने का सुअवसर मिला है। मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। कृषि और ग्रामीण विकास के विषय वैसे भी स्वाभाविक रूप से मुझे प्रिय हैं।
विगत वर्ष, 2021 में, भूमि के स्वास्थ्य और पोषण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए किया गया, आपका यह अभियान, सर्वथा अभिनंदनीय है। मुझे यह जानकर विशेष संतोष है कि आपके इस अभियान में तैंतीस (33) राष्ट्रीय संगठन भी जुड़े। आपने, देश के बीस (20) राज्यों में लगभग अठारह हजार (18000) स्थानों तक पहुंच कर, वहां इस महत्वपूर्ण विषय पर जागरूकता पैदा की। राष्ट्रहित में आपके प्रयास सफल हों, मेरी हार्दिक शुभकामना है।
भारतीय परंपरा में धरती को माता का स्थान दिया गया है। अथर्व वेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है “माता भूमि: पुत्रो अहम् पृथ्व्या:”, जो आपके अभियान का आदर्श वाक्य भी है। अर्थात्, भूमि मेरी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।
हमारे राष्ट्रीय गीत में भी “वंदे मातरम्” के रूप में धरती माता की वंदना की गई है। उसे “सुजलाम सुफलाम” अर्थात पावन जल और फल प्रदान करने वाली कहा गया है।
ऐसी धरती की संतान के रूप में, हम उसके स्वास्थ्य, उसके पोषण को कैसे नजरंदाज कर सकते हैं? कृत्रिम रसायन डाल कर, सालों तक उसका दोहन और शोषण कैसे कर सकते हैं! माता के प्रति यह निष्ठुरता, हमारे सनातन संस्कारों के विरुद्ध है।
मानव समाज का निर्माण, कृषि के विकास के साथ जुड़ा है। हमारे पर्व, त्योहार, संस्कृति, संस्कार, सभी सदियों तक कृषि केंद्रित रहे हैं। भारतीय शास्त्रों में कहा गया है “जीव जीवनम् कृषि:”, अर्थात जीव का जीवन ही कृषि पर आधारित है।
कृषि, हमारी संस्कृति, प्रकृति से अलग नहीं हो सकती।
भारतीय परंपरा में कृषि और ग्रामीण व्यवस्था के ऊपर प्रामाणिक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जैसे: पाराशर कृत कृषि पराशर, पाराशर तंत्र, सुरपाल कृत वृक्षायुर्वेद, मलयालम में परशुराम कृत कृषि गीता, सारंगधर की लिखी उपवनविनोद आदि।
मैं अपेक्षा करता हूं कि कृषि शोध संस्थान, प्राकृतिक कृषि के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करेंगे और किसानों को हमारी प्राचीन पद्धतियों से परिचित कराएंगे। कृषि विश्वविद्यालय जैविक खेती और प्राकृतिक खेती को अपने पाठ्यक्रमों में शामिल करें और कृषि के क्षेत्र में इनोवेशन और उद्यमिता को प्रोत्साहित करें। सतत और स्थायी विकास के लिए, प्राकृतिक कृषि जरूरी है।
यह समझना होगा कि प्राकृतिक स्रोत जैसे जल, मिट्टी, भूमि अक्षय नहीं हैं, न ही इन्हें फिर से बनाया जा सकता है। मानव का भाग्य और भविष्य इन प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर ही निर्भर है।
वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार देश के अधिकांश राज्यों में अधिकांश भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। देश के एक बड़े भाग में, विशेषकर पश्चिमी और दक्कन के क्षेत्र में मिट्टी सूख कर रेतीली बन रही है। फसलों की सिंचाई के लिए भूजल का निर्बाध दोहन हो रहा है। भूजल का स्तर नीचे आ गया है और मिट्टी की नमी कम हो गई है जिससे उसके जैविक अवयव समाप्त हो रहे हैं। नमी और सूक्ष्म जैविक पदार्थों की कमी के कारण मिट्टी रेत में बदल रही है।
कृषि में रसायनों के प्रयोग से भूमि पर दुष्प्रभाव, एक वैश्विक समस्या है। एक अनुमान के अनुसार विश्व भर में अगले बीस (20) वर्षों में अनाज की पैदावार चालीस प्रतिशत (40%) कम हो चुकी होगी और आबादी लगभग 10 बिलियन तक बढ़ चुकी होगी। भारत भी इस आपदा से अछूता न रहेगा।
इसलिए आवश्यक है कि भूमि के स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाये, उसे पुनः स्वस्थ बनाया जाये। रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के सघन प्रयोग से मिट्टी विषाक्त हो जाती है। उसके अंदर के उपजाऊ जैविक तत्व समाप्त हो जाते हैं।
मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए, प्राकृतिक जैविक खेती आशा की नई किरण है। पारंपरिक ज्ञान के आधार पर स्थानीय संसाधनों, जैसे गोबर, गौ मूत्र आदि की सहायता से न केवल कृषि की बढ़ती लागत को कम किया जा सकता है बल्कि भूमि की जैविक संरचना को बचाया जा सकता है। देशी खाद और कीटनाशक, पारंपरिक पद्धति से कम लागत में ही बनाए जाते हैं जिससे किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।
यद्यपि एक कालखंड में, देश की खाद्य सुरक्षा में हरित क्रांति का अवश्य महत्वपूर्ण योगदान रहा है लेकिन इससे भूमि क्षरण भी बढ़ा है और किसानों की लागत भी। सरकारी अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 15 टन से अधिक मिट्टी नष्ट हो रही है। यह गंभीर चिंता का विषय है।
समय के साथ, भूमि की पैदावार को बढ़ाने के लिए रासायनिक खादों, कीटनाशकों आदि की खपत बढ़ती गई है। विगत दशकों में उर्वरक की खपत अस्सी (80) गुना और कीटनाशकों का प्रयोग छह (6) गुना बढ़ा है जिससे कृषि, भूमि क्षरण के दुष्चक्र में फंस गई है और किसान कर्ज़ के। हमारा दायित्व है कि अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ हम धरती माता का भी स्वास्थ्य सुनिश्चित करें। उसकी जैविक उर्वरता बनाए रखें।
प्राकृतिक जैविक खेती ही इसका समाधान देती है। यह संतोष का विषय है कि मिट्टी के स्वास्थ्य को बचाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर, आप जैसी संस्थाओं द्वारा गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं।
सरकार द्वारा मिट्टी के स्वास्थ्य को बारह (12) पैमानों पर मापने के लिए, SOIL HEALTH CARDS व्यापक पैमाने पर प्रचलित किए गए हैं। मिट्टी की जांच के लिए प्रयोगशालाओं के नेटवर्क का निरंतर विस्तार किया जा रहा है।
इस वर्ष के बजट में गंगा नदी के किनारों पर रासायनिक खेती के स्थान पर प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने का प्रावधान किया गया है।
जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए, पारंपरिक कृषि विकास योजना के तहत Zero Budget Natural Farming, वैदिक कृषि, ऋषि कृषि, गौ कृषि आदि को अपनाया जा रहा है।
जागरूकता बढ़ने के साथ देश, रासायनिक खेती की हानियों और जैविक खाद्यान्न और फलों के लाभ के प्रति जागरूक हो रहा है। विश्व भर में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ रही है। भारत में स्थानीय परिवेश और ऋतुओं के अनुसार अनाजों और आहारों की समृद्ध परंपरा रही है जिसे हम आधुनिकता के प्रभाव में धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं। मेरा सदैव मानना रहा है कि हम अपनी प्राचीन खाद्यान्न परंपरा को जीवित करें।
मुझे ज्ञात हुआ है कि देश में लगभग तैंतालीस (38) लाख हेक्टेयर भूमि पर जैविक खेती की जा रही है जिसमें लगभग छह (6) लाख किसान जुड़े हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में जैविक खेती का क्षेत्रफल सर्वाधिक है। तथापि मुझे विशेष संतोष है कि हमारे देश के पर्वतीय प्रांतों जहां खेती योग्य भूमि कम है और जोत का आकार भी छोटा होता है, वहां जैविक खेती को किसानों ने सफलतापूर्वक अपनाया है। इससे साबित होता है कि छोटे और सीमांत किसानों के लिए जैविक प्राकृतिक खेती विशेष लाभकारी है। हमारे देश में छोटे और सीमांत किसान ही बहुसंख्यक (85%) हैं। जैविक खेती अपना कर वे अपनी लागत कम रख सकते हैं, इससे उनकी आमदनी भी बढ़ेगी।
प्रायः किसानों को जैविक प्राकृतिक कृषि को लेकर शंका रहती है कि इससे पैदावार कम हो जायेगी। मुझे विश्वास है कि आपकी यह पुस्तक, किसानों की शंका के निवारण करने के लिए प्रामाणिक उपयोगी जानकारी प्रदान करेगी। मैं अपेक्षा करूंगा कि इसके व्यापक प्रचार के लिए, इसका अनुवाद हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में कराया जाये जिससे आम किसान इसका लाभ उठा सके।