
नई दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण मामले में टिप्पणी करते हुए लोकायुक्त की भूमिका और अधिकार क्षेत्र को लेकर एक कानूनी सवाल खुला छोड़ दिया है। मामला इस सवाल से जुड़ा है कि क्या लोकायुक्त किसी प्रशासनिक न्यायाधिकरण द्वारा लगाए गए दंड को रद्द करने के निर्णय को चुनौती दे सकता है, विशेष रूप से तब जब वह अनुशासनात्मक कार्यवाही का प्रत्यक्ष पक्ष नहीं है।
मामला क्या है?
सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक लोकायुक्त ने उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें कर्नाटक राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण (KAT) ने एक सरकारी कर्मचारी पर लगाए गए अनिवार्य रिटायरमेंट (दंड) को रद्द कर दिया था। हाईकोर्ट ने पहले ही लोकायुक्त की याचिका को खारिज कर दिया था, और उसी के खिलाफ यह अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
जस्टिस दीपांकर दत्ता ने मौखिक टिप्पणी में लोकायुक्त से सवाल किया:
“आपको पक्षकार बनाने की आवश्यकता ही नहीं थी। क्या अनुशासनात्मक प्राधिकारी (disciplinary authority) आया है? नहीं। आप व्यथित कैसे हैं? आप कौन हैं?”
कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर आपराधिक अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोपों में दोषमुक्त कर दिया, तो अनुशासनात्मक कार्यवाही में उसे दोबारा साबित करना कैसे संभव होगा?
🕒 देरी भी बनी वजह:
कोर्ट ने 277 दिनों की देरी का हवाला देते हुए याचिका को तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया, लेकिन इस सवाल को “कानूनी रूप से खुला” छोड़ दिया कि क्या लोकायुक्त ऐसे मामलों में अधिकार रखता है या नहीं।
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यह मामला लोकायुक्त की संवैधानिक और कानूनी भूमिका की सीमाओं को लेकर महत्वपूर्ण बहस की ओर संकेत करता है।
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कोर्ट ने स्पष्ट निर्णय नहीं दिया, जिससे भविष्य में ऐसे मामलों में नई व्याख्या और मुकदमेबाजी की संभावना बनी हुई है।
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यह सवाल आगे चलकर यह तय कर सकता है कि लोकायुक्त सिर्फ रिपोर्ट देने तक सीमित है या न्यायिक आदेशों को चुनौती भी दे सकता है।
रिपोर्ट : शेलेन्द्र शेखर कग्रेती