
Climate Change in Himalayas: देवभूमि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के प्रमुख पर्यटक स्थल इस बार बर्फ की सफेद चादर के लिए तरस रहे हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के कारण न केवल पर्यटन प्रभावित हो रहा है, बल्कि ग्लेशियरों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है।
देहरादून/शिमला | दिसंबर और जनवरी का महीना, जो कभी हिमालयी राज्यों में भारी हिमपात (Snowfall) के लिए जाना जाता था, अब सूखा बीत रहा है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के लोकप्रिय हिल स्टेशनों पर इस बार सैलानियों को निराशा हाथ लग रही है। जहाँ एक ओर जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में बर्फबारी देखी गई, वहीं उत्तराखंड और हिमाचल में आसमान साफ है। इस ‘ड्राई विंटर’ (शुष्क सर्दी) के पीछे वैज्ञानिक और पर्यावरणविद जलवायु परिवर्तन के खतरनाक संकेतों को जिम्मेदार मान रहे हैं।
मौसमी चक्र में बदलाव: सिकुड़ रही हैं सर्दियां
प्रसिद्ध पर्यावरणविद और प्रोफेसर एसपी सती के अनुसार, पिछले कुछ दशकों में मौसमी चक्र में तेजी से बदलाव आया है। उनके विश्लेषण के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
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सर्दियों का घटना: गर्मियों का सीजन लगातार लंबा हो रहा है और सर्दियों का समय सिकुड़ता जा रहा है।
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स्नोफॉल का रेनफॉल में बदलना: जिन ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पहले बर्फ गिरती थी, वहां अब तापमान अधिक होने के कारण बारिश हो रही है।
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पश्चिमी विक्षोभ (Western Disturbance): उत्तराखंड में पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता और उसकी प्रकृति में आए बदलाव के कारण बर्फबारी के अनुकूल परिस्थितियां नहीं बन पा रही हैं।
ग्लेशियरों के भीतर बढ़ा तापमान: चौंकाने वाली रिसर्च
बर्फबारी न होने का सबसे भयावह असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. पंकज चौहान ने अपनी हालिया रिसर्च में चौंकाने वाले तथ्य साझा किए हैं:
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पिंडारी ग्लेशियर का मामला: डॉ. चौहान ने बताया कि पिंडारी ग्लेशियर के भीतर की सतह का तापमान, जिसे शून्य से नीचे (Minus) होना चाहिए था, वह अब 1 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच गया है।
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बर्फ को जमने का समय नहीं: पहाड़ों पर अगर बर्फ गिर भी रही है, तो धरती और वायुमंडल का तापमान इतना बढ़ा हुआ है कि उस बर्फ को ग्लेशियर के रूप में जमने का पर्याप्त समय नहीं मिल पा रहा है।
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शिफ्टिंग रेट: स्नोफॉल पड़ने का शिफ्टिंग रेट अब 10 से 15 फीसदी तक बढ़ गया है।
3000 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच रही है बारिश
जलवायु परिवर्तन का असर अब ऊंचाई की सीमाओं को भी पार कर रहा है। पहले जो बारिश 2500 मीटर की ऊंचाई तक सीमित रहती थी, वह अब 3000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हो रही है। इसका मतलब है कि अब ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में भी बर्फ के बजाय पानी गिर रहा है, जो ग्लेशियरों को तेजी से पिघलाने का काम कर रहा है।
| प्रभाव का क्षेत्र | वर्तमान स्थिति | संभावित परिणाम |
| पर्यटन (Tourism) | बर्फ न होने से पर्यटकों की संख्या में गिरावट | स्थानीय अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान |
| कृषि (Horticulture) | सेब और अन्य पहाड़ी फलों के लिए चिलिंग ऑवर की कमी | फसल की गुणवत्ता और पैदावार में कमी |
| जल स्तर (Water Level) | ग्लेशियरों का कम रिचार्ज होना | गर्मियों में नदियों के सूखने का खतरा |
अर्थव्यवस्था पर चोट: कश्मीर की ओर मुड़ रहे पर्यटक
उत्तराखंड के मसूरी, नैनीताल, औली और हिमाचल के शिमला-मनाली में बर्फबारी न होने के कारण पर्यटक अब अपना रुख जम्मू-कश्मीर की ओर कर रहे हैं। इससे होटल कारोबारियों और स्थानीय व्यापारियों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है। पर्यटन विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बर्फबारी का यही ट्रेंड रहा, तो विंटर टूरिज्म का पूरा मॉडल खतरे में पड़ सकता है।
निष्कर्ष: हिमालय के भविष्य पर प्रश्नचिह्न
हिमालय में बर्फबारी का न होना केवल एक मौसमी घटना नहीं है, बल्कि यह ग्लोबल वार्मिंग की एक गंभीर चेतावनी है। यदि समय रहते उत्सर्जन पर नियंत्रण और स्थानीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के उपाय नहीं किए गए, तो आने वाले समय में ‘सफेद सोना’ (बर्फ) केवल किताबों और तस्वीरों तक सीमित रह जाएगा।



