
नई दिल्ली: 13 दिसंबर भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा दिन है, जिसे देश कभी भूल नहीं सकता। यह तारीख न केवल कैलेंडर पर दर्ज एक दिन है, बल्कि यह उस काले अध्याय की याद दिलाती है जब आतंकवाद ने सीधे तौर पर भारत के लोकतंत्र के मंदिर—संसद भवन—पर हमला करने का दुस्साहस किया था। वर्ष 2001 की ठंडी सुबह, जब देश अपनी रोजमर्रा की गति में आगे बढ़ रहा था, उसी समय आतंक का साया राजधानी के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले क्षेत्र तक पहुंच गया।
13 दिसंबर 2001 की सुबह करीब 11:40 बजे, आतंकवादियों ने सफेद रंग की एम्बेसडर कार में सवार होकर संसद भवन परिसर में प्रवेश करने की कोशिश की। आतंकियों ने सुरक्षा बलों को भ्रमित करने के लिए फर्जी गृह मंत्रालय के स्टीकर और सुरक्षा संकेतों का इस्तेमाल किया। उनका मकसद साफ था—संसद भवन के भीतर घुसकर जनप्रतिनिधियों और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला करना।
सुरक्षा बलों की सतर्कता से टला बड़ा खतरा
आतंकियों की साजिश जितनी घातक थी, उतनी ही निर्णायक सुरक्षा बलों की प्रतिक्रिया भी रही। संसद भवन के बाहर तैनात सुरक्षाकर्मियों ने संदिग्ध गतिविधि को तुरंत भांप लिया और आतंकियों को भीतर घुसने से पहले ही घेर लिया। इसके बाद भीषण मुठभेड़ हुई, जिसमें सभी आतंकवादी मारे गए।
इस मुठभेड़ में देश के वीर सुरक्षाकर्मियों ने अपने प्राणों की आहुति दी। दिल्ली पुलिस, सीआरपीएफ और संसद सुरक्षा बल के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए लोकतंत्र की रक्षा की। उनकी कुर्बानी ने यह साबित कर दिया कि भारत का लोकतंत्र आतंक के आगे कभी झुकने वाला नहीं है।
लोकतंत्र पर सीधा हमला
यह हमला केवल एक इमारत पर नहीं था, बल्कि भारत की संप्रभुता, लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक मूल्यों पर सीधा हमला था। उस समय संसद सत्र चल रहा था और कई सांसद परिसर में मौजूद थे। यदि आतंकवादी अपने मंसूबों में सफल हो जाते, तो इसके परिणाम अकल्पनीय हो सकते थे।
देशभर में इस हमले के बाद शोक और आक्रोश की लहर दौड़ गई। राजनीतिक दलों ने मतभेद भुलाकर एक स्वर में आतंकवाद की निंदा की और देश की एकता का संदेश दिया।
13 दिसंबर 1989: आतंक के आगे झुकने की त्रासदी
13 दिसंबर की तारीख भारतीय इतिहास में एक अन्य दर्दनाक घटना के लिए भी जानी जाती है। वर्ष 1989 में आतंकवादियों ने तत्कालीन गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की पुत्री रूबैया सईद का अपहरण कर लिया था। आतंकियों ने उनकी रिहाई के बदले जेल में बंद अपने साथियों को छोड़ने की मांग रखी।
उस समय हालात बेहद संवेदनशील थे। सरकार ने 13 दिसंबर 1989 को आतंकियों की मांग मानते हुए पांच आतंकवादियों को रिहा कर दिया। इस फैसले को लेकर देश में तीखी बहस हुई और आज भी इसे आतंकवाद के सामने झुकने के उदाहरण के रूप में देखा जाता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस घटना ने आतंकवादियों के हौसले बढ़ाए और भविष्य में कई और हिंसक घटनाओं की नींव रखी।
आतंकवाद के खिलाफ भारत का बदला हुआ रुख
2001 के संसद हमले के बाद भारत की आतंकवाद विरोधी नीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला। सुरक्षा व्यवस्था को और सख्त किया गया, खुफिया तंत्र को मजबूत किया गया और संसद सहित सभी संवेदनशील प्रतिष्ठानों की सुरक्षा को नए सिरे से परिभाषित किया गया।
इसके बाद संसद परिसर को दुनिया के सबसे सुरक्षित क्षेत्रों में गिना जाने लगा। बहुस्तरीय सुरक्षा घेरा, आधुनिक निगरानी उपकरण और त्वरित प्रतिक्रिया बलों की तैनाती की गई।
शहीदों को नमन, संकल्प को मजबूती
हर वर्ष 13 दिसंबर को देश संसद हमले में शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि देता है। यह दिन केवल शोक का नहीं, बल्कि संकल्प का भी है—कि भारत आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेगा और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएगा।
शहीदों की कुर्बानी आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देती है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा आसान नहीं होती, इसके लिए निरंतर सतर्कता और साहस की आवश्यकता होती है।
इतिहास से सीख
13 दिसंबर की दोनों घटनाएं—1989 का अपहरण कांड और 2001 का संसद हमला—देश को यह सिखाती हैं कि आतंकवाद के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी लंबे समय में गंभीर परिणाम ला सकती है। वहीं, दृढ़ इच्छाशक्ति और मजबूत सुरक्षा तंत्र ही देश को सुरक्षित रख सकते हैं।
आज, जब भारत वैश्विक मंच पर एक मजबूत राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, तब 13 दिसंबर हमें अतीत की गलतियों और वीरता—दोनों की याद दिलाता है।
लोकतंत्र अडिग है
कुल मिलाकर, 13 दिसंबर भारतीय लोकतंत्र की परीक्षा का दिन रहा है। एक ओर आतंक ने देश की आत्मा को चोट पहुंचाने की कोशिश की, तो दूसरी ओर सुरक्षा बलों और लोकतांत्रिक संस्थाओं ने यह साबित किया कि भारत झुकने वाला नहीं है।
यह दिन देशवासियों को याद दिलाता है कि लोकतंत्र केवल संविधान की किताबों में नहीं, बल्कि उन लोगों के बलिदान में जीवित रहता है, जो उसकी रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देते हैं।



