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उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुर्मी फैक्टर: BJP की नई सोशल इंजीनियरिंग और पंकज चौधरी के जरिए नेतृत्व खड़ा करने की रणनीति

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव में अपेक्षित परिणाम न मिलने के बाद भारतीय जनता पार्टी अब अपने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले को नए सिरे से साधने में जुटी हुई है। इसी कड़ी में कुर्मी समुदाय एक बार फिर राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गया है। उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पंकज चौधरी, जो स्वयं कुर्मी समाज से आते हैं, को आगे कर पार्टी इस प्रभावशाली ओबीसी वर्ग के बीच नया नेतृत्व खड़ा करने और संगठनात्मक पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है।

राजनीतिक जानकारों के अनुसार, कुर्मी समाज की उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में हिस्सेदारी लगभग 7 से 8 प्रतिशत मानी जाती है, लेकिन इसका प्रभाव केवल जनसंख्या तक सीमित नहीं है। प्रदेश की 48 से 50 विधानसभा सीटों और 9 से 10 लोकसभा सीटों पर कुर्मी वोट निर्णायक भूमिका निभाने की क्षमता रखता है। यही कारण है कि भाजपा के साथ-साथ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस समुदाय को अपने पाले में बनाए रखने के लिए लगातार प्रयासरत रही हैं।

तीन बड़े क्षेत्रों में फैला कुर्मी जनाधार

उत्तर प्रदेश में कुर्मी समुदाय का प्रभाव मुख्य रूप से तीन भौगोलिक क्षेत्रों में केंद्रित है। पहला क्षेत्र पूर्वांचल, खासकर मिर्जापुर और उसके आसपास का इलाका, जहां कुर्मी समाज की राजनीतिक पकड़ मजबूत मानी जाती है। यही वह क्षेत्र है जहां भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल का पारंपरिक जनाधार है। अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से लोकसभा सांसद हैं और कुर्मी समाज में उनकी गहरी पकड़ मानी जाती है।

दूसरा प्रमुख क्षेत्र बुंदेलखंड और अवध का हिस्सा है, जहां कुर्मी मतदाता कई सीटों पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करते रहे हैं। तीसरा क्षेत्र रुहेलखंड, विशेष रूप से बरेली और आसपास का इलाका है। बरेली से भाजपा के दिग्गज नेता संतोष गंगवार लगातार आठ बार सांसद रहे और वर्तमान में राज्यपाल हैं। इन तीनों क्षेत्रों में कुर्मी नेताओं की अलग-अलग सामाजिक और राजनीतिक पकड़ है, जो किसी भी पार्टी के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।

ओबीसी राजनीति में कुर्मी की अहम भूमिका

उत्तर प्रदेश में ओबीसी मतदाताओं की हिस्सेदारी करीब 40 प्रतिशत के आसपास मानी जाती है। इस बड़े वोट बैंक के भीतर कुर्मी समाज एक संगठित और प्रभावशाली समूह के रूप में उभरता है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, कुर्मी समाज का प्रभाव 24 से अधिक जिलों में देखा जा सकता है। पूर्वांचल से लेकर रुहेलखंड और बुंदेलखंड तक फैले इस समुदाय के समर्थन को लेकर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा रहती है।

विशेष रूप से उन सीटों पर जहां जातीय संतुलन बेहद नाजुक होता है, वहां कुर्मी वोट चुनावी परिणाम को पलटने की ताकत रखता है। यही वजह है कि भाजपा अब केवल गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर रहने के बजाय अपने संगठन के भीतर कुर्मी नेतृत्व को आगे बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ा रही है।

16 जिलों में निर्णायक आबादी

कुर्मी समाज की उल्लेखनीय आबादी प्रदेश के कम से कम 16 जिलों में 11 से 12 प्रतिशत तक मानी जाती है। पूर्वांचल में महाराजगंज, संतकबीर नगर, कुशीनगर, सोनभद्र और मिर्जापुर जैसे जिलों में कुर्मी मतदाता प्रभावशाली हैं। अवध क्षेत्र में उन्नाव, कानपुर, फतेहपुर और लखनऊ में भी इनकी अच्छी-खासी संख्या है।

इसके अलावा कौशांबी, प्रयागराज, सीतापुर, बस्ती, अकबरपुर, एटा, बरेली और लखीमपुर खीरी जैसे जिलों में भी कुर्मी समाज का राजनीतिक असर देखा जाता है। इन क्षेत्रों में चुनावी रणनीति बनाते समय किसी भी पार्टी के लिए कुर्मी फैक्टर को नजरअंदाज करना मुश्किल हो जाता है।

सचान, कटियार से लेकर वर्मा तक: कुर्मी नेतृत्व की विविधता

कुर्मी समाज के भीतर भी कई उप-समुदाय और सरनेम पाए जाते हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभाव रखते हैं। यूपी में कुर्मी-सैथवार समुदाय की हिस्सेदारी भी करीब 7 से 8 प्रतिशत मानी जाती है। सचान, कटियार, निरंजन, वर्मा, पटेल, चौधरी और गंगवार जैसे सरनेम के जरिए इस समाज की पहचान होती है।

रुहेलखंड क्षेत्र में गंगवार समुदाय का प्रभाव रहा है, जबकि कानपुर-बुंदेलखंड बेल्ट में कटियार, पटेल और सचान सरनेम वाले कुर्मी नेताओं की मजबूत पकड़ देखी जाती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और अवध क्षेत्र में वर्मा, चौधरी और पटेल सरनेम वाले कुर्मी समाज के लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं।

राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो बेनी प्रसाद वर्मा और सोनेलाल पटेल जैसे दिग्गज नेता कुर्मी समाज से ही आए, जिन्होंने अपने समय में प्रदेश की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया। वर्तमान में समाजवादी पार्टी में राकेश वर्मा और लालजी वर्मा जैसे नेता कुर्मी समुदाय के प्रमुख चेहरे माने जाते हैं।

भाजपा की रणनीति: संगठन के भीतर नया नेतृत्व

भाजपा के सामने चुनौती यह रही है कि कुर्मी समाज में पार्टी का स्वतंत्र और मजबूत नेतृत्व सीमित रहा है। लंबे समय तक पार्टी ने इस वर्ग में सहयोगी दलों या क्षेत्रीय चेहरों के जरिए संतुलन साधने की कोशिश की। अब पंकज चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा यह संकेत देना चाहती है कि वह कुर्मी समाज को केवल वोट बैंक नहीं, बल्कि नेतृत्व देने वाला समुदाय मानती है।

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम 2024 के लोकसभा चुनाव में मिले झटके के बाद भाजपा की रणनीतिक सुधार प्रक्रिया का हिस्सा है। पार्टी आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ओबीसी वर्ग, खासकर कुर्मी समाज, को दोबारा अपने पक्ष में मजबूत करने की तैयारी में है।

आने वाले चुनावों में बढ़ेगी कुर्मी राजनीति की अहमियत

आने वाले समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुर्मी समाज की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होने की संभावना है। यदि भाजपा इस समुदाय के बीच संगठनात्मक पकड़ और नेतृत्व विकसित करने में सफल रहती है, तो इसका सीधा असर राज्य की सियासी तस्वीर पर पड़ सकता है। वहीं, सपा और बसपा के लिए भी यह चुनौती होगी कि वे अपने पारंपरिक कुर्मी समर्थन को कैसे बनाए रखें।

कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुर्मी फैक्टर एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, और पंकज चौधरी के जरिए भाजपा की नई सोशल इंजीनियरिंग आने वाले चुनावी समीकरणों को नई दिशा दे सकती है।

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