 
						नई दिल्ली | जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्र राजनीति का “त्योहार” फिर से दस्तक देने जा रहा है। वर्ष 2025–26 के छात्रसंघ चुनाव की प्रक्रिया आज से औपचारिक रूप से शुरू होगी, जब उम्मीदवार चार नवंबर को होने वाले मतदान के लिए अपने नामांकन दाखिल करेंगे। कैंपस में बीते एक सप्ताह से पोस्टर, नारे और बहस का दौर शुरू हो चुका है — और अब नामांकन के साथ यह माहौल अपने चरम पर पहुँचने वाला है।
लोकतंत्र की प्रयोगशाला में फिर गूँजेगी युवा आवाज़
देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में शामिल जेएनयू हमेशा से “छात्र लोकतंत्र की प्रयोगशाला” के रूप में देखा जाता रहा है। यहाँ के छात्रसंघ चुनाव न सिर्फ परिसर की दिशा तय करते हैं, बल्कि कई बार राष्ट्रीय राजनीति के रुझान भी उजागर करते हैं। यही वजह है कि जेएनयू के चुनाव परिणाम हर बार देशभर के राजनीतिक दलों और विचारधाराओं की निगाह में रहते हैं।
इस बार का चुनाव और भी खास है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कोविड महामारी, शैक्षणिक व्यवधान और प्रशासनिक विलंब के चलते जेएनयू की छात्र राजनीति में ठहराव आ गया था। अब जब प्रक्रिया फिर से पटरी पर लौटी है, तो छात्र संगठनों के लिए यह अपनी ताकत दिखाने का अहम मौका है।
चार नवंबर को मतदान, प्रशासन ने तैयार की पारदर्शी व्यवस्था
चुनाव अधिकारी समिति ने घोषणा की है कि मतदान 4 नवंबर (सोमवार) को होगा। इसके लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने शिकायत निवारण समिति (Grievance Redressal Committee) का गठन किया है, जो पूरी प्रक्रिया की निगरानी करेगी।
नामांकन पत्र सोमवार से दाखिल किए जाएँगे, जबकि 29 अक्टूबर तक नाम वापसी की अंतिम तारीख तय की गई है। इसके बाद कैंपेनिंग का अंतिम दौर शुरू होगा, जिसमें उम्मीदवार खुलकर अपने-अपने एजेंडे के साथ छात्रों के बीच पहुँचेंगे।
विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इस बार ई-प्रचार और सोशल मीडिया संचार की भूमिका भी देखी जाएगी, ताकि छात्र राजनीति में आधुनिक संचार माध्यमों का जिम्मेदार उपयोग हो सके।
कौन हैं मैदान में: बायें बनाम दायें की पारंपरिक जंग
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में इस बार भी वही पारंपरिक प्रतिस्पर्धा देखने को मिलेगी — लेफ्ट यूनिटी बनाम एबीवीपी।
लेफ्ट यूनिटी में AISA (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन), SFI (स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया) और AISF (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन) जैसे संगठन शामिल हैं, जिन्होंने पिछले साल लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति और महासचिव के पद पर जीत दर्ज की थी।
वहीं, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने पिछली बार एक दशक बाद संयुक्त सचिव का पद जीतकर अपनी “वापसी की दस्तक” दी थी।
इसके अलावा, BAPSA (बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन) और DSF (डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन) जैसे स्वतंत्र छात्र संगठन भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को तैयार हैं। ये संगठन कैंपस में सामाजिक न्याय, समानता और प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठा रहे हैं।
मुख्य मुद्दे: हॉस्टल, फीस और परिसर की आज़ादी
जेएनयू में इस बार चुनावी एजेंडे में “विचारधारा” से ज्यादा “वास्तविक मुद्दों” की चर्चा हावी है। छात्रों के बीच सबसे बड़ी चिंताएँ हैं —
- हॉस्टल में जगहों की कमी
- फीस में बढ़ोतरी
- सुरक्षा और लैंगिक संवेदनशीलता
- छात्र कल्याण और रोजगार परक पाठ्यक्रमों की मांग
- परिसर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
लेफ्ट यूनिटी ने अपने प्राथमिक एजेंडे में “फीस संरचना की समीक्षा” और “छात्र अधिकारों की बहाली” को रखा है, जबकि एबीवीपी “शैक्षणिक अनुशासन” और “राष्ट्रीय मूल्यों” की बात कर रही है।
BAPSA की ओर से प्रतिनिधित्व के सवालों पर जोर है — उनका नारा है, “JNU for All, Not for a Few”.
कैंपस में चुनावी हलचल: पोस्टर, डिबेट और जनसभाएँ
जेएनयू के कैंपस में चुनावी माहौल अब पूरी तरह से बन चुका है। गंगा ढाबा, साबरमती और स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के गलियारे — हर जगह पोस्टर और छात्र संवादों की गूंज है।
नामांकन दाखिल होने के बाद “ओपन जनरल बॉडी मीटिंग्स” (GBMs) और “प्रेसिडेंशियल डिबेट” जैसे पारंपरिक कार्यक्रम होंगे, जहाँ उम्मीदवार खुलकर अपनी विचारधारा रखते हैं और छात्र उनसे सवाल पूछते हैं।
जेएनयू की यह परंपरा हमेशा से भारतीय विश्वविद्यालय राजनीति का सबसे जीवंत उदाहरण मानी जाती है, क्योंकि यहाँ सवाल सिर्फ विचारधारा पर नहीं — जवाबदेही पर भी होते हैं।
पिछले चुनावों की झलक
2024 के चुनाव में लेफ्ट यूनिटी ने चारों पदों पर जीत दर्ज कर “क्लीन स्वीप” किया था।
2025 के अप्रैल में हुए विशेष उपचुनाव में भी तीन पद लेफ्ट के पास गए, लेकिन एबीवीपी ने संयुक्त सचिव का पद जीतकर लंबा सूखा तोड़ा था।
उसके बाद से दोनों पक्षों ने अपने-अपने संगठन ढांचे को और मजबूत किया है।
इस बार के चुनाव को लेकर राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि मुकाबला बेहद करीबी होगा। जेएनयू में लगभग 8,000 पंजीकृत छात्र हैं, जिनमें से औसतन 70% मतदान में हिस्सा लेते हैं।
विवादों की आहट और प्रशासन की तैयारी
पिछले हफ्ते विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज़ में बाएं और दाएं गुटों के बीच झड़प की घटना ने चुनावी माहौल को थोड़ा तनावपूर्ण बना दिया था।
हालाँकि प्रशासन ने इसे “अलोकतांत्रिक घटना” बताते हुए सुरक्षा बढ़ाने और चुनाव आचार संहिता के पालन पर जोर दिया है।
विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया,
“जेएनयू की प्रतिष्ठा छात्र लोकतंत्र के कारण है। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि चुनाव शांति, पारदर्शिता और स्वतंत्रता के साथ हों।”
युवा राजनीति का संकेतक
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव को देश की युवा राजनीति का सूक्ष्मदर्शी माना जाता है।
यहाँ की बहसें और फैसले बाद में राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करते हैं।
कई राष्ट्रीय नेता — जैसे कन्हैया कुमार, नर्मदा बाचाओ आंदोलन की कार्यकर्ता मेधा पाटकर या भूतपूर्व मंत्री जयंत चौधरी — कभी इसी मंच से उभरे थे।
इस वर्ष का चुनाव एक बार फिर यह दिखाएगा कि नई पीढ़ी की प्राथमिकताएँ क्या हैं —
क्या वे विचारधारा के टकराव में उलझी रहेंगी, या अब वास्तविक छात्र मुद्दों पर केंद्रित राजनीति को प्राथमिकता देंगी।
लोकतंत्र की धड़कन लौट रही है
जेएनयू परिसर में इस वक्त दीवारें बोल रही हैं, ढाबे विचारों से गूंज रहे हैं, और छात्र फिर एक बार अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए तैयार हैं।
नामांकन के साथ ही इस “राजनीतिक उत्सव” की शुरुआत हो जाएगी, जो आने वाले वर्षों में छात्र राजनीति की दिशा तय करेगा। चार नवंबर को जब मतदान पेटियाँ खुलेंगी, तब सिर्फ चार पदों के विजेता नहीं तय होंगे — बल्कि तय होगा कि भारत के युवाओं की राजनीति अब किस मोड़ पर खड़ी है।
 
				


