नोएडा / उत्तराखंड:
नोएडा के सेक्टर-21 स्थित रामलीला मैदान (नोएडा स्टेडियम) में दिसंबर 2025 के आसपास आयोजित उत्तराखंडी महाकौथिग 2025 में उमड़ी भारी भीड़ ने आयोजकों और सत्ता के गलियारों को जरूर गदगद कर दिया। रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान, ढोल-दमाऊं की थाप, लोकनृत्य और पहाड़ी गीतों की गूंज—सब कुछ ऐसा था मानो उत्तराखंड अपनी पूरी जीवंतता के साथ मैदान में उतर आया हो।
लेकिन इस सांस्कृतिक उल्लास के पीछे एक कड़वा सच भी सांस ले रहा है—वह सच जो उत्तराखंड के पहाड़ों में पसरे सन्नाटे, बंद घरों और खाली गांवों में छिपा है। यह महाकौथिग, दरअसल, उत्सव से ज्यादा पलायन की गवाही देता नजर आया।
🎭 संस्कृति का जश्न या पलायन का उत्सव?
महाकौथिग जैसे आयोजन उत्तराखंडी संस्कृति को जीवित रखने का दावा करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कार्यक्रम सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि—
जब संस्कृति को जीने वाले गांव ही खाली हो रहे हों, तो मंच पर नाचती संस्कृति कितनी जीवित है?
आज उत्तराखंड के सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां 10 लोग भी मुश्किल से मिलते हैं। कई गांव पूरी तरह “भूतिया गांव” बन चुके हैं। स्कूल बंद हैं, आंगनबाड़ी सूनी हैं और खेत झाड़ियों में बदल चुके हैं। ऐसे में नोएडा, दिल्ली, देहरादून या हरिद्वार में आयोजित महाकौथिग दरअसल पलायन के बाद की संस्कृति का प्रदर्शन बनकर रह जाते हैं।

🏔️ पहाड़ खाली, मैदान भरे
उत्तराखंड से पलायन कोई नया मुद्दा नहीं है। रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और बुनियादी ढांचे के अभाव ने दशकों से लोगों को पहाड़ छोड़ने पर मजबूर किया है।
विडंबना यह है कि जिन लोगों ने मजबूरी में पहाड़ छोड़े, वही लोग अब मैदानों में अपनी जड़ों को याद करने के लिए महाकौथिग में जुटते हैं।
नोएडा का महाकौथिग इस सच्चाई का सबसे बड़ा प्रतीक है—
जहां गांव खाली हो रहे हैं, वहीं शहरों में उत्तराखंड “भीड़” बन चुका है।
📉 पलायन के आंकड़े और हकीकत
सरकारी व गैर-सरकारी रिपोर्टें बताती हैं कि उत्तराखंड में हजारों गांव आंशिक या पूर्ण रूप से खाली हो चुके हैं।
कुछ जिलों में तो 60–70% तक आबादी पलायन कर चुकी है।
-
खेती घाटे का सौदा बन चुकी है
-
युवाओं के लिए स्थानीय रोजगार नहीं
-
स्वास्थ्य सेवाएं कई किलोमीटर दूर
-
शिक्षा के लिए शहरों की मजबूरी
इन हालात में महाकौथिग जैसे आयोजन एक सवाल खड़ा करते हैं—
क्या सरकार और समाज पलायन के मूल कारणों पर बात करने को तैयार है, या सिर्फ संस्कृति की झलक दिखाकर संतोष कर लिया जाएगा?
🗣️ राजनीतिक मंच बनते सांस्कृतिक आयोजन
ऐसे आयोजनों में अक्सर नेता, मंत्री और जनप्रतिनिधि मंच साझा करते हैं। मुख्यमंत्री Pushkar Singh Dhami की मौजूदगी या सरकार से जुड़े चेहरों की भागीदारी इसे और भी राजनीतिक रंग देती है।
भाषणों में “उत्तराखंड की गौरवशाली संस्कृति”, “देवभूमि” और “पलायन रोकने के प्रयास” जैसे शब्द गूंजते हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई जस की तस बनी रहती है।
यही वजह है कि आलोचक इसे “सांस्कृतिक पलायन का महाकौथिग” कहने लगे हैं—
जहां समस्या का उत्सव मनाया जा रहा है, समाधान नहीं।
🎶 लोकगीतों में दर्द, तालियों में विस्मृति
महाकौथिग के मंच से जब कोई लोकगायक गाता है—
“छूटी गौं, छूटा मैत…”
तो भीड़ तालियां बजाती है, भावुक होती है, वीडियो बनाती है।
लेकिन यही गीत जिन गांवों से जन्मे, वहां अब सुनने वाला कोई नहीं बचा।
यह भावनात्मक विस्थापन (Emotional Migration) है—
जहां लोग शरीर से शहरों में हैं और आत्मा से पहाड़ों में।
❓ क्या समाधान सिर्फ मंच तक सीमित है?
अगर महाकौथिग जैसे आयोजनों के साथ-साथ:
-
स्थानीय रोजगार नीति
-
पहाड़ केंद्रित उद्योग
-
सशक्त कृषि और पर्यटन मॉडल
-
स्वास्थ्य और शिक्षा का विकेंद्रीकरण
पर गंभीर काम होता, तो ये आयोजन सचमुच उत्सव कहलाते।
वरना ये सिर्फ यह साबित करते हैं कि उत्तराखंड अब अपने ही लोगों के लिए प्रवासी भूमि बन चुका है।
✍️ निष्कर्ष: उत्सव से आगे सोचने की जरूरत
नोएडा का उत्तराखंडी महाकौथिग 2025 शानदार था—इसमें कोई शक नहीं।
लेकिन असली सवाल मंच की रौशनी से बाहर है, उन अंधेरे गांवों में जहां ताले लटके हैं।
जब तक:
-
पहाड़ में रोजगार नहीं
-
गांव में जीवन नहीं
-
युवाओं के सपने वहीं पूरे नहीं
तब तक हर महाकौथिग हमें यही याद दिलाएगा कि
👉 यह उत्सव नहीं, पलायन की कहानी है।
उत्तराखंड को महाकौथिग नहीं, स्थायी समाधान चाहिए—
ताकि अगली बार संस्कृति गांवों में जिए, सिर्फ मैदानों में नहीं।



