
नई दिल्ली, 22 अप्रैल 2025 — पश्चिम बंगाल में बढ़ती सांप्रदायिक घटनाओं और हालिया मुर्शिदाबाद हिंसा के बाद अब राष्ट्रपति शासन की मांग सुप्रीम कोर्ट की चौखट तक पहुंच चुकी है। मंगलवार को शीर्ष अदालत इस मांग पर सुनवाई करेगी, जिसमें यह तर्क दिया गया है कि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था चरमराई हुई है और हिंदू समुदाय पर सुनियोजित हमले हो रहे हैं।
🔍 याचिका में क्या कहा गया है?
पश्चिम बंगाल के दो नागरिकों, देवदत्त माजी और मणि मुंजाल द्वारा दाखिल इस याचिका में आरोप लगाया गया है कि:
- राज्य सरकार वक्फ कानून को लेकर हो रहे विरोध को कुचल रही है।
- विरोध प्रदर्शनों के बाद हिंदू समुदाय को निशाना बनाया गया है।
- राज्य में 2022 से अब तक कई सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं (कोलकाता, बीरभूम, संदेशखली, और अब मुर्शिदाबाद)।
- याचिका में अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र से रिपोर्ट मांगने और केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग की गई है।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति भूषण आर. गवई और ए.जी. मसीह की पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील विष्णु शंकर जैन से पूछा:
“आप चाहते हैं कि हम राष्ट्रपति शासन के लिए रिट जारी करें? वैसे ही आजकल हमें विधायी और कार्यकारी काम में हस्तक्षेप का दोषी बताया जा रहा है।”
यह टिप्पणी सीधे-सीधे उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की हालिया आलोचना की ओर संकेत करती है, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को “सुपर पार्लियामेंट” बताया था और अनुच्छेद 142 की शक्तियों को “परमाणु मिसाइल” की संज्ञा दी थी।
राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए संविधान का अनुच्छेद 356 सक्रिय होता है, लेकिन उससे पहले अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि वह राज्यों को आंतरिक अशांति से बचाए।
याचिका में अनुरोध किया गया है कि:
- सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र को रिपोर्ट मांगने का निर्देश दे।
- हिंसा की जांच के लिए पूर्व न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन-सदस्यीय समिति बनाई जाए।
- संवेदनशील क्षेत्रों में केंद्रीय बलों की तैनाती की जाए।
- भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने वक्फ कानून पर कोर्ट की टिप्पणियों को “धार्मिक युद्ध” भड़काने वाला कहा।
- दूसरी ओर, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने न्यायपालिका का सम्मान करते हुए पार्टी को इन टिप्पणियों से अलग बताया।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल बंगाल की सियासत, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों और न्यायपालिका की सीमाओं को लेकर भी एक महत्वपूर्ण दिशा तय करेगा।
क्या अदालत इस मामले को विधायी और कार्यकारी क्षेत्र के “सीमा उल्लंघन” के रूप में देखेगी या संविधान की रक्षा के लिए हस्तक्षेप करेगी — यह देखना दिलचस्प होगा।