
देहरादून, 18 अक्टूबर | देशभर में दीपावली के त्यौहार की रौनक चरम पर है। बाजारों में भीड़, घरों में सजावट की तैयारी और रोशनी की जगमगाहट के बीच हर कोई रोशनी के इस पर्व को उत्साह से मनाने की तैयारी में जुटा है।
देहरादून के बाजारों में भी नए कपड़े, सजावटी सामान, बिजली की लड़ियां और मिट्टी के दीयों की खरीदारी तेज़ है। लेकिन इसी चकाचौंध के बीच शहर की कुम्हार मंडी में इस बार रौनक कुछ फीकी दिखाई दे रही है।
यहाँ पारंपरिक मिट्टी के दीये और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ बनाने वाले कुम्हार मिट्टी की भारी कमी और महंगाई से परेशान हैं। इस बार दीयों और मूर्तियों की बढ़ती मांग के बावजूद स्थानीय कारीगरों के चूल्हे ठंडे हैं, क्योंकि मिट्टी न मिलने के कारण उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
मिट्टी की उपलब्धता हुई कम, परंपरा पर संकट
कुम्हार मंडी के कलाकार बताते हैं कि इस बार दीये बनाने में सबसे बड़ी दिक्कत मिट्टी की उपलब्धता में कमी की है। पहले देहरादून के मेहुवाला क्षेत्र से आसानी से चिकनी मिट्टी मिल जाती थी, जो दीये और मूर्तियों के निर्माण के लिए आदर्श मानी जाती थी।
लेकिन इस बार मानसून के दौरान ज्यादा बारिश और जलभराव के कारण मिट्टी की गुणवत्ता बेहद खराब हो गई है। मिट्टी में अब गंदगी, रेत और पत्थरों की मात्रा बढ़ गई है, जिससे दीयों की शेप बिगड़ जाती है और टूटने का खतरा बढ़ जाता है।
कारीगर कार्तिक प्रजापति, जो अपने परिवार के साथ पीढ़ियों से यह काम कर रहे हैं, बताते हैं,
“पहले एक ट्रॉली मिट्टी हमें 7 से 8 हजार रुपये में मिल जाती थी, लेकिन इस बार वही मिट्टी 15 हजार से कम में नहीं मिल रही। ऊपर से क्वालिटी भी पहले जैसी नहीं है। अब देहरादून में मिट्टी मिलना मुश्किल हो गया है, इसलिए हमें सहारनपुर से मिट्टी मंगवानी पड़ रही है, जो महंगी भी पड़ती है।”
दो महीने से ठप पड़ा काम, मजदूर घर बैठे
मिट्टी की कमी का असर केवल उत्पादन पर ही नहीं बल्कि मजदूरों की रोजी-रोटी पर भी पड़ा है।
कुम्हार मंडी में काम करने वाले कई मजदूरों को पिछले दो महीनों से काम नहीं मिला।
आम तौर पर एक कारीगर एक दिन में 1200 से 1500 दीये तैयार कर लेता है, और एक महीने में यह संख्या 36,000 से 40,000 दीयों तक पहुँच जाती है।
लेकिन इस बार मिट्टी की अनुपलब्धता के चलते कई कारीगरों को दो महीने तक घर में खाली बैठना पड़ा।
कार्तिक बताते हैं,
“हमारे यहां करीब 10-12 लोग काम करते हैं। दो महीने तक सबके पास कोई काम नहीं था। मिट्टी नहीं मिली तो न दीये बने, न मूर्तियाँ। दीपावली के वक्त जो हमारी कमाई का समय होता है, वही सबसे मुश्किल वक्त बन गया।”
दीयों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी
मिट्टी की कमी और बढ़ती लागत का सीधा असर दीयों की कीमतों पर पड़ा है।
पहले जो छोटे दीये ₹2 या ₹3 में मिल जाते थे, अब वही दीये ₹7 से ₹10 तक में बिक रहे हैं।
इस वजह से खरीदार भी ज़्यादा सामान नहीं खरीद पा रहे हैं।
कुम्हार मंडी के व्यापारी बंसीलाल प्रजापति बताते हैं,
“डिमांड बहुत ज्यादा है, लेकिन माल नहीं बन पा रहा। जो भी थोड़ा बहुत बन रहा है या बाहर से आ रहा है, उसकी कीमत बढ़ गई है। गुजरात और राजस्थान से जो दीये आ रहे हैं, वे ट्रांसपोर्ट और मिट्टी दोनों की लागत बढ़ा रहे हैं।”
स्थानीय उत्पादन घटा, बाहर से आ रहा माल
कुम्हार मंडी में इस बार कारोबारियों को मजबूरन बाहर से माल मंगवाना पड़ रहा है।
अनमोल कुमार प्रजापति, जो कई वर्षों से मिट्टी के बर्तन और दीये बनाते हैं, बताते हैं,
“इस बार आधा से भी कम उत्पादन हो पाया है। पहले यहां 25 लाख तक का कारोबार हो जाता था, लेकिन अब आधा भी नहीं हो रहा। हमें गुजरात और दूसरे राज्यों से दीये और मूर्तियाँ मंगवानी पड़ रही हैं। इससे मुनाफा भी घट गया और पारंपरिक पहचान पर भी असर पड़ा।”
कला और परंपरा पर असर
कुम्हार मंडी के ये कलाकार केवल कारोबार नहीं करते, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
हर दीपावली पर उनके बनाए दीयों से हजारों घरों में रोशनी होती है। लेकिन इस बार मिट्टी की कमी ने न केवल अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है, बल्कि कला और परंपरा दोनों पर संकट खड़ा कर दिया है।
स्थानीय निवासी मालती देवी कहती हैं,
“हम हर साल यहीं से दीये और मूर्तियाँ लेते हैं। लेकिन इस बार कीमतें ज्यादा हैं और वैराइटी कम है। फिर भी कोशिश करते हैं कि कुम्हारों का काम जारी रहे, क्योंकि यह हमारी परंपरा है।”
जलवायु परिवर्तन का असर भी दिखा
विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या के पीछे जलवायु परिवर्तन और अनियमित मानसून की बड़ी भूमिका है।
देहरादून और आसपास के क्षेत्रों में इस बार सामान्य से ज्यादा बारिश हुई, जिससे चिकनी मिट्टी की परतें जलमग्न हो गईं।
इससे मिट्टी में नमी और रासायनिक बदलाव आया, जिससे वह दीये या मूर्तियों के लिए उपयुक्त नहीं रही।
पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. संजय बिष्ट का कहना है,
“हमें यह समझना होगा कि पारंपरिक मिट्टी उद्योग भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहा है। लगातार भारी बारिश और मिट्टी के स्रोतों पर अतिक्रमण ने कारीगरों के लिए स्थिति कठिन बना दी है। यह केवल आर्थिक नहीं, पर्यावरणीय मुद्दा भी है।”
सरकार और समाज से उम्मीद
कुम्हार मंडी के कलाकारों को उम्मीद है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन इस दिशा में मदद करेगा।
कारीगरों का सुझाव है कि मिट्टी की आपूर्ति के लिए विशेष ‘क्ले बैंक’ या मिट्टी वितरण केंद्र बनाए जाएं, ताकि पारंपरिक शिल्पियों को समय पर अच्छी गुणवत्ता की मिट्टी मिल सके।
राज्य सरकार द्वारा हस्तशिल्प और पारंपरिक कला के संरक्षण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन स्थानीय कुम्हार चाहते हैं कि इन्हें जमीनी स्तर पर लागू किया जाए।
परंपरा की रौशनी बचाने की चुनौती
देहरादून की कुम्हार मंडी इस समय परंपरा और आधुनिकता के बीच संघर्ष का प्रतीक बन गई है।
एक ओर लोग बाजार से इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स और सजावटी बल्ब खरीद रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर मिट्टी के दीयों की असली रौशनी मिट्टी की कमी में धुंधला रही है।
फिर भी, इन कारीगरों की उंगलियों में वो मिट्टी की खुशबू और परिश्रम की चमक अब भी बाकी है — जो हर दीपावली पर इस उम्मीद के साथ दीया जलाती है कि अगली बार उनके घर भी उतनी ही रोशनी होगी, जितनी उनके दीयों से दूसरों के घरों में पहुँचती है।