इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज ने न्यायिक रिक्तियों से जुड़ी जनहित याचिका की सुनवाई से खुद को अलग किया

प्रयागराज (इलाहाबाद) : इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी ने बुधवार को एक जनहित याचिका की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया। यह याचिका उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट में व्याप्त न्यायिक रिक्तियों को शीघ्र और पारदर्शी रूप से भरने की मांग को लेकर दायर की गई है। याचिका में देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में न्यायिक व्यवस्था के “कार्यात्मक पक्षाघात” की ओर गंभीर संकेत किए गए हैं।
मामले की अगली सुनवाई अब जुलाई माह में होगी।
इस वर्ष मार्च में वरिष्ठ अधिवक्ता सतीश त्रिवेदी द्वारा दाखिल की गई इस जनहित याचिका में कहा गया है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट “अपने इतिहास के सबसे गंभीर संकट” से गुजर रहा है।
याचिका में कोर्ट से मांग की गई है कि वह केंद्र और संबंधित प्रशासन को निर्देश दे कि वे न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में एमओपी (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर) के तहत तय समयसीमा का सख्ती से पालन करें और दोषमुक्त और बाध्यकारी दिशानिर्देश जारी करें।
याचिका में आंकड़ों के माध्यम से हाईकोर्ट की दयनीय स्थिति का उल्लेख किया गया है:
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उत्तर प्रदेश की आबादी: 24 करोड़ से अधिक
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लंबित मुकदमे: 11.55 लाख से अधिक
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स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या: 160
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वर्तमान कार्यरत न्यायाधीश: केवल 88
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प्रति न्यायाधीश लंबित मामले: औसतन 14,623
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प्रति 30 लाख आबादी पर केवल 1 जज उपलब्ध
जनहित याचिका में मुख्य मांगें और सुझाव:
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न्यायाधीशों की समयबद्ध नियुक्ति के लिए दिशानिर्देश तय किए जाएं
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रिक्ति से 6 माह पूर्व कम से कम 20 संभावित उम्मीदवारों की सिफारिश की जाए।
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160 पदों को तत्काल भरने के बाद अनुच्छेद 224A के तहत सेवानिवृत्त जजों की नियुक्ति
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ताकि लंबित मामलों का तेजी से निपटारा हो।
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न्यायिक शक्ति की आवधिक समीक्षा
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यह जांचा जाए कि 160 पद पर्याप्त हैं या नहीं, और आवश्यकता पड़ने पर संख्या बढ़ाई जाए।
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उत्तराधिकारी व्यवस्था सुनिश्चित की जाए
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सेवानिवृत्त जज के स्थान पर तत्काल नया जज कार्यभार संभाले, कोई रिक्ति न रहे।
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याचिका में कहा गया है:
“न्यायपालिका, संविधान की अंतिम संरक्षक है। यदि वह ही रिक्तियों और जनशक्ति की कमी के कारण अपंग हो जाए, तो न्यायिक स्वतंत्रता, शक्तियों का पृथक्करण और संविधान की मूल संरचना पर गंभीर संकट उत्पन्न हो जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट की भी चिंता
यह याचिका सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी के कुछ दिन बाद दायर की गई थी, जिसमें शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट में न्यायिक रिक्तियों पर चिंता जताई थी और कहा था कि:
“इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसे विशाल न्यायालय में योग्य और सक्षम उम्मीदवारों की नियुक्ति में देरी जनता के न्याय तक पहुंच के अधिकार का हनन है।”
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह भी निर्देश दिया कि लंबित मामलों से निपटने हेतु सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को तदर्थ नियुक्त किया जा सकता है।
हालांकि न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी ने सुनवाई से अलग होने के स्पष्ट कारण नहीं बताए, लेकिन कानूनी हलकों में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यह निर्णय न्यायिक निष्पक्षता और हितों के टकराव (Conflict of Interest) से बचने के उद्देश्य से लिया गया हो सकता है। अब यह याचिका किसी अन्य पीठ को सौंपी जाएगी, जिसकी सुनवाई जुलाई में हो सकती है।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट देश का सबसे बड़ा हाईकोर्ट है।
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यहां न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में देरी पूरे न्याय तंत्र को प्रभावित करती है।
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यह मामला केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश में न्यायिक रिक्तियों की प्रणालीगत चुनौती को उजागर करता है।