
नई दिल्ली: राज्यसभा की नामित सांसद सुधा मूर्ति ने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखते हुए केंद्र सरकार से संविधान संशोधन लाने का आग्रह किया। इस प्रस्ताव के माध्यम से उन्होंने संविधान में एक नया अनुच्छेद 21(ख) जोड़ने की मांग की, जिसके तहत 3 से 6 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा (Early Childhood Care and Education – ECCE) को मुफ्त और अनिवार्य मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित किया जा सके।
राज्यसभा में यह प्रस्ताव रखते हुए सुधा मूर्ति ने कहा कि देश की शिक्षा व्यवस्था की नींव प्रारंभिक वर्षों में ही रखी जाती है और यदि इस स्तर पर गुणवत्तापूर्ण देखभाल और शिक्षा सुनिश्चित की जाए, तो इसका सकारात्मक प्रभाव पूरी पीढ़ी पर पड़ता है। उन्होंने इसे सामाजिक विकास, आर्थिक प्रगति और समावेशी विकास से सीधे तौर पर जुड़ा विषय बताया।
आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को दी बधाई
अपने संबोधन की शुरुआत करते हुए सुधा मूर्ति ने देशभर के आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को बधाई दी और उनके योगदान की सराहना की। उन्होंने कहा कि विशेषकर ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता दशकों से माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के लिए जमीनी स्तर पर काम कर रही हैं।
उन्होंने कहा, “आंगनवाड़ी कार्यकर्ता देश की उन अनदेखी नायिकाओं में शामिल हैं, जिन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद लाखों बच्चों और महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाया है। उनके योगदान को औपचारिक संवैधानिक मान्यता मिलनी चाहिए।”
आंगनवाड़ी योजना के 50 वर्ष पूरे
राज्यसभा सांसद ने अपने भाषण में यह भी रेखांकित किया कि आंगनवाड़ी योजना ने हाल ही में 50 वर्ष पूरे किए हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 1975 में एकीकृत बाल विकास सेवा योजना (Integrated Child Development Services – ICDS) की शुरुआत की गई थी, जिसका उद्देश्य गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और 0 से 6 वर्ष तक के बच्चों की देखभाल करना था।
सुधा मूर्ति ने कहा कि ICDS योजना ने एक “बफर ज़ोन” के रूप में काम किया, जहां पोषण, स्वास्थ्य और प्रारंभिक शिक्षा को एक साथ जोड़ा गया। इस योजना ने कुपोषण से निपटने और बच्चों के समग्र विकास में अहम भूमिका निभाई है।
2002 का संविधान संशोधन और शिक्षा का मौलिक अधिकार
अपने प्रस्ताव को ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए सुधा मूर्ति ने 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान हुए 86वें संविधान संशोधन का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इसी संशोधन के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया था।
उन्होंने यह भी याद दिलाया कि उसी समय प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा को लेकर एक नीति-निर्देशक सिद्धांत (Directive Principle of State Policy) जोड़ा गया था, लेकिन इसे अब तक मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया है। उनके अनुसार, यही वह खाई है जिसे भरने की आवश्यकता है।
क्यों जरूरी है ECCE को मौलिक अधिकार बनाना?
सुधा मूर्ति ने अपने भाषण में जोर देकर कहा कि 3 से 6 वर्ष की आयु बच्चों के संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। यदि इस चरण में बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और देखभाल नहीं मिलती, तो बाद के वर्षों में शिक्षा प्रणाली पर उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
उन्होंने कहा, “शिक्षा एक जादुई छड़ी की तरह है। यह जिस जीवन को छूती है, उसे बदल देती है। यह केवल व्यक्ति को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज को बेहतर बनाती है और देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान देती है।”
नीति और अर्थव्यवस्था से जुड़ा मुद्दा
सांसद ने यह भी तर्क दिया कि ECCE को मौलिक अधिकार बनाने से केवल सामाजिक न्याय ही नहीं, बल्कि आर्थिक लाभ भी सुनिश्चित होंगे। शुरुआती शिक्षा में निवेश से भविष्य में ड्रॉपआउट दर कम होती है, कौशल स्तर बेहतर होता है और उत्पादक कार्यबल तैयार होता है।
उन्होंने कहा कि कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययन यह साबित कर चुके हैं कि प्रारंभिक बाल शिक्षा में किया गया निवेश लंबे समय में कई गुना लाभ देता है। भारत जैसे युवा आबादी वाले देश के लिए यह निवेश और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
सरकार और संसद से अपेक्षा
सुधा मूर्ति ने सरकार से अपील की कि वह इस प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए व्यापक विमर्श शुरू करे। उन्होंने कहा कि ECCE को मौलिक अधिकार का दर्जा देने से केंद्र और राज्यों—दोनों की जिम्मेदारी स्पष्ट होगी और संसाधनों का बेहतर आवंटन संभव हो सकेगा।
उन्होंने यह भी कहा कि यह कदम शिक्षा व्यवस्था में समानता लाने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल साबित हो सकता है, खासकर वंचित और कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए।
व्यापक बहस की संभावना
राजनीतिक और शिक्षा नीति विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रस्ताव संसद में एक व्यापक बहस को जन्म दे सकता है। यदि सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाती है, तो यह संविधान, शिक्षा नीति और संघीय ढांचे से जुड़े कई पहलुओं को प्रभावित करेगा।
फिलहाल, सुधा मूर्ति का यह प्रस्ताव शिक्षा को लेकर एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण को सामने रखता है—जहां सीखने की शुरुआत को ही संवैधानिक संरक्षण देने की बात कही गई है।



