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दिल्ली उच्च न्यायालय करेगा दोषियों की समयपूर्व रिहाई नीतियों की निगरानी; सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर स्वतः संज्ञान

नई दिल्ली, 10 दिसंबर। दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी में दोषियों की सजा में छूट (Remission) और समयपूर्व रिहाई (Premature Release) से संबंधित नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी और पर्यवेक्षण की प्रक्रिया शुरू कर दी है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में जारी निर्देशों के अनुपालन में उच्च न्यायालय ने इस मामले में स्वतः संज्ञान लेते हुए एक नई सुओ-मोटो याचिका पर सुनवाई शुरू की है।

मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने बुधवार को कहा कि समयपूर्व रिहाई और सजा में छूट से संबंधित नीतियों का एकसमान, पारदर्शी और संवेदनशील ढंग से पालन सुनिश्चित करना आवश्यक है, क्योंकि यह न केवल दंड प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है बल्कि कैदियों के पुनर्वास और सुधार के सिद्धांत से भी जुड़ा हुआ है।


सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद दिल्ली हाई कोर्ट की सक्रियता

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की सभी राज्य सरकारों, जेल प्रशासन और उच्च न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि:

  • सजा में छूट एवं समयपूर्व रिहाई की नीतियों का सही और समयबद्ध पालन हो
  • विविध राज्यों की नीतियों में असमानताओं को न्यूनतम किया जाए
  • कैदियों के मामलों की समीक्षा में देरी, पारदर्शिता की कमी और मानवाधिकार संबंधी त्रुटियों को दूर किया जाए

इसी संदर्भ में दिल्ली हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए यह कदम उठाया है।

पीठ ने कहा कि यह नीतियां दंडात्मक न्याय व्यवस्था के मानवीय पक्ष को मजबूत करती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि कैदियों को केवल दंड ही नहीं, बल्कि सुधार के अवसर भी मिलें।


क्या है ‘समयपूर्व रिहाई’ और क्यों ज़रूरी है इसकी निगरानी?

‘समयपूर्व रिहाई’ (Premature Release) वह प्रक्रिया है जिसके तहत कैदी अपनी निर्धारित सजा की अवधि पूरी होने से पहले रिहा किए जा सकते हैं, बशर्ते:

  • उन्होंने सजा की न्यूनतम अवधि (आमतौर पर 14 वर्ष) पूरी कर ली हो
  • उनका आचरण जेल में संतोषजनक रहा हो
  • वे समाज के लिए खतरा न हों
  • राज्य सरकार द्वारा गठित Sentence Review Board (SRB) उनकी रिहाई के पक्ष में हो

हालांकि कई मामलों में कैदियों की फाइलें वर्षों तक समीक्षा के इंतजार में अटकी रहती हैं, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराज़गी व्यक्त की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समयपूर्व रिहाई कोई ‘कृपा’ नहीं बल्कि ‘कानूनी अधिकार’ है, जब तक कि राज्य की नीति के अनुसार पात्रता पूरी हो।


हाई कोर्ट की मंशा — ‘सिस्टमेटिक ओवरसाइट’ सुनिश्चित करना

दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि:

  • जेल विभाग
  • गृह विभाग
  • Sentence Review Boards
  • जिला स्तरीय समिति

इन सभी संस्थाओं की कार्यप्रणाली की न्यायालय समीक्षा करेगा ताकि नीति का पालन कागज़ों से निकलकर वास्तविकता में सुनिश्चित हो सके। पीठ ने कहा कि यह अदालत यह देखेगी कि क्या—

  • कैदियों के मामले समय पर समीक्षा के लिए भेजे जा रहे हैं
  • समीक्षा बोर्ड अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से निभा रहा है
  • नीतियों के नियमों को समान रूप से लागू किया जा रहा है
  • किसी भी कैदी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार तो नहीं हो रहा

हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्याय व्यवस्था का उद्देश्य केवल ‘सजा देना’ नहीं, बल्कि ‘सुधार और पुनर्वास’ भी है।


राष्ट्रीय राजधानी में कैदियों की बढ़ती संख्या — एक चिंता का विषय

दिल्ली की जेलों में कैदियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में:

  • समयपूर्व रिहाई
  • रेमिशन
  • पुनर्वास कार्यक्रम

इनकी नीतियां जेलों पर बोझ कम करने और संसाधनों का संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

कई मानवाधिकार संगठनों ने भी दिल्ली हाई कोर्ट के इस हस्तक्षेप का स्वागत किया है। उनका कहना है कि जेलों में अतिसंख्या, कैदियों की लंबी प्रतीक्षा अवधि और असमानता बने रहने के कारण इस तरह की ज्यूडिशियल ओवरसाइट बेहद आवश्यक है।


निगरानी से जुड़े अगले कदम

अदालत जल्द ही—

  1. दिल्ली सरकार से विस्तृत स्थिति रिपोर्ट
  2. जेल प्रशासन से समयपूर्व रिहाई की लंबित फाइलों का डेटा
  3. Sentence Review Board के बैठकों की आवृत्ति और निर्णयों की जानकारी

मांग सकती है। इसके बाद अदालत यह तय करेगी कि निगरानी किस तरीके से की जाए— सीधे अदालत द्वारा, या एक विशेषज्ञ समिति के माध्यम से।


निष्कर्ष

दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कदम न केवल दिल्ली की न्याय प्रणाली में मानवीय, पारदर्शी और समयबद्ध व्यवहार को सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देशभर में एक मिसाल भी बन सकता है।
सजा में छूट और समयपूर्व रिहाई से जुड़ी नीतियों का क्रियान्वयन लंबे समय से विवाद और देरी का विषय रहा है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हाई कोर्ट द्वारा स्वतः संज्ञान लेकर निगरानी शुरू करना यह दर्शाता है कि न्यायपालिका अब इस प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक और कैदी-केंद्रित बनाना चाहती है।

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