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51 साल पुराना विवाद खत्म, पुर्तगाली शासन में मिली जमीन मामले में SC ने कलेक्टर के आदेश को रखा बरकरार

नई दिल्ली। देश की न्यायपालिका ने एक बार फिर इतिहास से जुड़े जटिल विवाद पर बड़ा फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने 51 साल पुराने विवाद को सुलझाते हुए दादरा और नगर हवेली प्रशासन के कलेक्टर द्वारा 30 अप्रैल 1974 को दिए गए आदेश को सही ठहराया है। इस आदेश में पुर्तगाली शासनकाल में दी गई जमीन की कब्जेदारी को रद्द कर उसे प्रशासन के अधीन कर दिया गया था। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि यह विडंबना है कि आजादी के 78 साल बाद भी न्यायपालिका औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा प्रदत्त अधिकारों से जुड़े मामलों को निपटाने में लगी है।

सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी

जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एन.के. सिंह की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि सबसे चौंकाने वाली बात केवल यह नहीं है कि इस अदालत को आधी सदी पहले उठे विवाद को हल करना पड़ा, बल्कि यह भी है कि आजादी के सात दशक बाद भी भारत को उपनिवेशवाद की विरासत से जूझना पड़ रहा है। अदालत ने साफ किया कि औपनिवेशिक शासन द्वारा दी गई सुविधाएं और अधिकार भारत के स्वतंत्र कानून और संविधान के सामने मान्य नहीं हो सकते।

पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि अदालत की आलोचना या असहमति को अपीलकर्ताओं के दावों की वैधता पर प्रतिकूल टिप्पणी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इसका आशय केवल औपनिवेशिक विरासत और उसके भारतीय न्याय व्यवस्था पर पड़े प्रभाव को रेखांकित करना था।

मामला क्या है?

दादरा और नगर हवेली पर 1954 तक पुर्तगाल का कब्जा था। 1954 में यह क्षेत्र पुर्तगाली शासन से मुक्त हुआ और 1961 में औपचारिक रूप से भारत में विलय हो गया। पुर्तगाल के शासनकाल के दौरान, 1923 से 1930 के बीच कई लोगों को वार्षिक किराए की शर्त पर अनिश्चित काल तक भूमि पर कब्जा और खेती करने का अधिकार दिया गया। समय के साथ इन जमीनों का उत्तराधिकारियों में बंटवारा हो गया और विवाद गहराता चला गया।

1969 में भारत सरकार ने इन पुर्तगाली अनुदानों को रद्द कर जमीन को प्रशासन के अधीन कर लिया। इसके बाद 1971 में दादरा और नगर हवेली भूमि सुधार कानून लाया गया। इसमें प्रावधान था कि पुर्तगाली शासन में दी गई जमीन का नियमित खेती के लिए उपयोग होना चाहिए। जांच में पाया गया कि कई भूखंड बंजर पड़े हैं। इसी आधार पर कलेक्टर ने 30 अप्रैल 1974 को आदेश जारी कर जमीन वापस लेने का फैसला सुनाया।

कानूनी लड़ाई का लंबा सफर

कलेक्टर के आदेश को प्रभावित पक्षों ने चुनौती दी। 1978 में ट्रायल कोर्ट ने इस आदेश को खारिज कर दिया। लेकिन मामला यहीं नहीं रुका। सरकार इस फैसले के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंची। 2005 में हाईकोर्ट ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाते हुए साफ कहा कि 1963 में लिस्बन कोर्ट का कोई भी निर्णय भारतीय अदालतों पर बाध्यकारी नहीं है। भारत अपनी संप्रभु शक्तियों का इस्तेमाल कर औपनिवेशिक शासन द्वारा दिए गए अधिकारों को वापस लेने का पूर्ण हक रखता है।

इस फैसले के बाद अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। लगभग दो दशक तक यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित रहा और आखिरकार अब 2025 में इसका निपटारा हो गया।

सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कलेक्टर का 1974 का आदेश कानून और तथ्यों के हिसाब से पूरी तरह सही था। पुर्तगाली शासनकाल में मिली जमीन का अधिकार स्वतंत्र भारत की कानूनी व्यवस्था में मान्य नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने कहा कि आजादी के बाद भारत को अपने संसाधनों और भूमि पर पूर्ण अधिकार है और प्रशासन को यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि कोई भी उपनिवेशवादी अनुदान भविष्य में विवाद का कारण न बने।

निर्णय का महत्व

इस फैसले से कई बड़े संदेश निकलते हैं। पहला, भारत की न्यायपालिका ने यह साफ कर दिया कि विदेशी शासन द्वारा दिए गए अधिकार और फैसले भारत की संप्रभुता से ऊपर नहीं हो सकते। दूसरा, यह निर्णय भविष्य के लिए एक नजीर बनेगा कि औपनिवेशिक काल में मिली सुविधाओं का दावा स्वतंत्र भारत में वैध नहीं है। तीसरा, भूमि सुधार कानूनों को लागू करने और प्रशासनिक फैसलों की वैधता को मजबूती मिली है।

कानूनविदों का कहना है कि यह फैसला केवल दादरा और नगर हवेली तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए एक संदेश है कि औपनिवेशिक विरासत से जुड़े विवादों का निपटारा भारतीय कानून और संविधान के आधार पर ही होगा।

विशेषज्ञों की राय

संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली की मजबूती को दर्शाता है। प्रो. एस.के. वर्मा, वरिष्ठ विधि विश्लेषक के अनुसार, “यह फैसला सिर्फ जमीन विवाद का हल नहीं है बल्कि उपनिवेशवाद की मानसिकता को खत्म करने की दिशा में भी एक कदम है। यह बताता है कि भारत की संप्रभुता सर्वोपरि है और औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा दिए गए अधिकार आज के संदर्भ में कोई महत्व नहीं रखते।”

इतिहासकारों का कहना है कि यह फैसला भारत के उस संघर्ष की याद दिलाता है जो उसने स्वतंत्रता पाने के बाद अपनी भूमि और संसाधनों को अपने नियंत्रण में लाने के लिए किया। यह निर्णय भविष्य की पीढ़ियों को यह भी संदेश देता है कि विदेशी शासन से मिली सुविधाएं या अधिकार कभी भी स्वतंत्र भारत में बाध्यकारी नहीं हो सकते।

कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश 51 साल पुराने विवाद का अंत तो है ही, साथ ही यह भारत की न्यायिक संप्रभुता का सशक्त उदाहरण भी है। इस फैसले ने स्पष्ट कर दिया कि आजादी के 78 साल बाद भी यदि औपनिवेशिक काल के अधिकारों पर विवाद होता है, तो भारत का संविधान और कानून ही अंतिम निर्णायक होंगे। दादरा और नगर हवेली का यह मामला इतिहास के पन्नों में एक ऐसी मिसाल के रूप में दर्ज होगा, जिसमें न्यायपालिका ने न केवल एक पुराना विवाद खत्म किया, बल्कि यह भी साबित किया कि स्वतंत्र भारत की संप्रभुता किसी भी औपनिवेशिक विरासत से ऊपर है।

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