
नई दिल्ली, 4 नवंबर 2025। देश के 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में सोमवार से स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) यानी वोटर लिस्ट समीक्षा अभियान की शुरुआत हो गई है। इस व्यापक प्रक्रिया के तहत 51 करोड़ से अधिक मतदाताओं की जानकारी की पुष्टि और अद्यतन किया जाएगा। चुनाव आयोग के मुताबिक यह प्रक्रिया अगले कुछ हफ्तों तक चलेगी और इसका उद्देश्य मतदाता सूची को अधिक सटीक, पारदर्शी और अद्यतन बनाना है।
हालांकि इस बीच पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और बिहार जैसे विपक्ष-शासित राज्यों में इस अभियान को लेकर राजनीतिक विवाद गहराता जा रहा है। कई विपक्षी दलों ने SIR को “राजनीतिक एजेंडा” करार देते हुए केंद्र सरकार और चुनाव आयोग की मंशा पर सवाल उठाए हैं।
क्या है SIR और क्यों मचा बवाल?
SIR यानी Special Intensive Revision — चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची की समीक्षा और सत्यापन की एक नियमित प्रक्रिया है, जो आमतौर पर हर पाँच साल में एक बार बड़े पैमाने पर की जाती है। इस बार यह प्रक्रिया 2026 के लोकसभा चुनाव से पहले का सबसे बड़ा चुनावी अभ्यास मानी जा रही है।
इस दौरान बूथ स्तर अधिकारी (BLO) घर-घर जाकर मतदाताओं की जानकारी की पुष्टि करते हैं, नई प्रविष्टियाँ जोड़ते हैं और मृत या स्थानांतरित मतदाताओं के नाम हटाते हैं। लेकिन बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसे लेकर आशंकाएँ इसलिए बढ़ गई हैं क्योंकि विपक्ष का दावा है कि “समीक्षा के बहाने” सत्ताधारी दल राजनीतिक रूप से असहज मतदाताओं को सूची से हटाने की साजिश कर रहा है।
SIR के खिलाफ बंगाल में सियासी संग्राम, ममता बनर्जी सड़कों पर
पश्चिम बंगाल में SIR का विरोध अब खुलकर सड़क पर उतर आया है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आज (4 नवंबर) कोलकाता में एक विशाल विरोध मार्च का नेतृत्व करने का ऐलान किया है। यह मार्च टीएमसी के शीर्ष नेताओं — अभिषेक बनर्जी, डेरेक ओ’ब्रायन, शशि पांजा और फिरहाद हकीम — की मौजूदगी में निकाला जाएगा।
टीएमसी का कहना है कि केंद्र SIR की आड़ में “मतदान अधिकारों पर हमला” कर रहा है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा,
“यह प्रक्रिया प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक है। बंगाल में जिन गरीब, अल्पसंख्यक और ग्रामीण वोटर्स ने भाजपा को नकारा है, उन्हें अब ‘गैर-मौजूद’ साबित करने की कोशिश की जा रही है।”
राज्य में पहले से ही तनाव का माहौल है। हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में टीएमसी विधायक की धमकी के बाद बूथ-स्तरीय अधिकारियों (BLOs) की सुरक्षा को लेकर भी बहस छिड़ गई है। प्रशासन ने निर्देश दिए हैं कि SIR के दौरान घर-घर जाने वाले बीएलओ को पर्याप्त पुलिस सुरक्षा दी जाए ताकि वे बिना भय के काम कर सकें।
तमिलनाडु सरकार भी सुप्रीम कोर्ट पहुँची
बंगाल के साथ-साथ तमिलनाडु में भी SIR को लेकर राजनीतिक टकराव तेज हो गया है।
राज्य के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की पार्टी डीएमके ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है, जिसमें SIR को लेकर “भेदभावपूर्ण नीति” अपनाने का आरोप लगाया गया है।
डीएमके ने अपनी याचिका में कहा है कि यह प्रक्रिया “विपक्षी वोटर्स को लक्षित करने का उपकरण” बन सकती है।
स्टालिन ने एक बयान में कहा,
“बीजेपी सरकार चुनावी मशीनरी को अपने हित में मोड़ना चाहती है। यह समीक्षा नहीं, बल्कि चुनावी सफाई अभियान है — जिसमें असली मतदाताओं को बाहर करने की योजना बनाई जा रही है।”
उन्होंने कहा कि SIR प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं है और राज्य सरकारों को पर्याप्त भागीदारी नहीं दी जा रही।
केंद्रीय चुनाव आयोग का रुख — ‘राजनीति नहीं, नियमित प्रक्रिया’
चुनाव आयोग ने विवादों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि SIR कोई नई या राजनीतिक प्रक्रिया नहीं है। आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया,
“स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन हर कुछ वर्षों में की जाती है ताकि मतदाता सूची में मृत, डुप्लिकेट या गलत प्रविष्टियाँ हटाई जा सकें। इस बार भी प्रक्रिया पूर्व निर्धारित शेड्यूल के अनुसार हो रही है।”
आयोग का कहना है कि हर राज्य को अपने स्तर पर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ समन्वय के निर्देश दिए गए हैं। बीएलओ की सुरक्षा सुनिश्चित करने और मतदाता गोपनीयता बनाए रखने के लिए राज्यों से विशेष रिपोर्ट भी मांगी गई है।
बिहार से लेकर बंगाल तक विपक्ष का साझा स्वर
हालांकि बिहार में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। यहाँ राजद-जदयू गठबंधन ने भी SIR पर सवाल उठाए हैं। राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि “यह प्रक्रिया तब शुरू की गई जब जनता की प्राथमिकता महंगाई और बेरोजगारी है।”
वहीं बंगाल, तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों में विपक्ष ने SIR को “चुनावी मनोविज्ञान तैयार करने का उपकरण” कहा है।
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने आरोप लगाया कि,
“बीजेपी SIR के ज़रिए मतदाताओं की जातीय और धार्मिक प्रोफाइल का इस्तेमाल करना चाहती है। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक मिसाल है।”
बीएलओ के लिए सुरक्षा व्यवस्था और प्रशिक्षण पर जोर
बंगाल में बीएलओ के साथ दुर्व्यवहार की आशंकाओं के बाद चुनाव आयोग ने अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती का निर्देश दिया है। जिलाधिकारियों को कहा गया है कि वे बीएलओ को प्रशिक्षण दें और उनके साथ स्थानीय पुलिस की गश्त सुनिश्चित करें।
चुनाव आयोग के सूत्रों के मुताबिक, कई राज्यों में यह भी पाया गया है कि मतदाताओं से ‘पारिवारिक पहचान पत्र’ और ‘पते का प्रमाण’ मांगने को लेकर भ्रम है। आयोग ने स्पष्ट किया है कि किसी भी मतदाता का नाम केवल प्रशासनिक आधार पर नहीं हटाया जा सकता, बल्कि उसके लिए लिखित सूचना और व्यक्तिगत सत्यापन आवश्यक है।
राजनीतिक महत्व और आगे की राह
विश्लेषकों का मानना है कि SIR का यह अभियान 2026 के आम चुनावों से पहले एक संवेदनशील राजनीतिक संकेत भी बन सकता है। बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में बीजेपी अपने संगठन को मजबूत करने की कोशिश कर रही है, वहीं विपक्ष इसे “लोकतंत्र पर हमला” बता रहा है।
राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. निरंजन भट्टाचार्य कहते हैं,
“यह पहली बार है जब मतदाता सूची की समीक्षा को लेकर इतना तीखा राजनीतिक टकराव देखने को मिल रहा है। इसका असर केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि चुनावी मानस पर भी पड़ेगा।”
देश में मतदाता सूची का अद्यतन लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने की प्रक्रिया है, लेकिन जब यह प्रक्रिया ही अविश्वास और राजनीतिक शंकाओं में घिर जाए, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है।
अब देखना यह होगा कि ममता बनर्जी का मार्च, स्टालिन की याचिका और चुनाव आयोग का रुख — इन सबके बीच SIR अपनी पारदर्शिता साबित कर पाता है या यह एक और बड़ा राजनीतिक विवाद बनकर उभरता है।



