
देहरादून | उत्तराखंड हाईकोर्ट ने वन विभाग में कार्यरत आउटसोर्स कर्मचारियों की नौकरी खत्म करने के विभागीय आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए उन हजारों परिवारों को बड़ी राहत दी है, जो पिछले कई महीनों से अनिश्चितता और वित्तीय संकट से जूझ रहे थे। वरिष्ठ न्यायमूर्ति मनोज कुमार तिवारी की एकलपीठ ने साफ कहा कि जहां पद उपलब्ध हैं और काम जारी है, वहां कर्मचारियों की सेवाएं बाधित नहीं की जानी चाहिए। कोर्ट का यह हस्तक्षेप न केवल एक संवेदनशील प्रशासनिक मुद्दे को संबोधित करता है, बल्कि आउटसोर्स व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्थाओं पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करता है।
पृष्ठभूमि: क्यों पहुंचा मामला अदालत तक?
वन विभाग में लंबे समय से तैनात आउटसोर्स कर्मियों का संकट तब शुरू हुआ जब विभाग ने अचानक एक आदेश जारी करते हुए सैकड़ों कर्मचारियों के अनुबंध समाप्त कर दिए। इन कर्मचारियों—जिनकी संख्या लगभग 300 थी—ने अदालत में याचिका दायर कर बताया कि उनकी सेवा इसलिए खत्म कर दी गई क्योंकि विभाग ने उनके वेतन भुगतान की मद को बदल दिया था।
याचिकाकर्ताओं, जिनमें प्रमुख रूप से दिनेश चौहान शामिल हैं, ने कहा कि भुगतान मद में बदलाव के बाद न सिर्फ उनकी तनख्वाह रुक गई, बल्कि विभाग ने उनसे नियमित कार्य लेना भी बंद कर दिया, जिससे उनकी जीविका पर सीधा प्रभाव पड़ा। कई कर्मचारी तो महीनों से लंबित वेतन के कारण गंभीर आर्थिक संकट में थे।
इन कर्मचारियों ने तर्क दिया कि उनकी सेवाएं वर्षों से जारी थीं और कार्य की आवश्यकता आज भी बनी हुई है, ऐसे में बिना उचित व्यवस्था किए सेवा समाप्त करना न केवल मनमाना है, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ भी है।
सरकार का जवाब: “भुगतान के लिए अब कोई मद उपलब्ध नहीं”
राज्य सरकार ने अदालत के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि आउटसोर्स कर्मियों के भुगतान के लिए जो पूर्व वित्तीय मद उपलब्ध थी, उसका प्रावधान अब समाप्त हो चुका है। ऐसे में विभाग के पास कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं बचा और सेवाएं समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
सरकार का यह तर्क करोड़ों की बजट प्रणाली और विभागीय वित्त प्रबंधन पर भी सवाल खड़ा करता है कि यदि इतने बड़े स्तर पर कर्मचारी काम कर रहे थे, तो बजट मद में परिवर्तन करते समय उनके भविष्य और भुगतान की निरंतरता सुनिश्चित क्यों नहीं की गई?
यह पहली बार नहीं है जब उत्तराखंड में मद परिवर्तन के बाद कर्मचारी प्रभावित हुए हों, लेकिन इस बार इसकी मार सीधा उन कर्मचारियों पर पड़ी जो जंगल प्रबंधन, फील्ड सर्विलांस, वन अग्नि नियंत्रण और विभाग के कई महत्वपूर्ण कार्यों में वर्षों से सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे थे।
2023 में भी मिला था अस्थायी संरक्षण
दिलचस्प बात यह है कि फरवरी 2023 में भी हाईकोर्ट ने उसी तरह की परिस्थितियों में आउटसोर्स कर्मियों की सेवा समाप्ति पर अस्थायी रोक लगा दी थी। मतलब, यह समस्या नई नहीं है—यह विभागीय नीतिगत असंगतियों का दोहराव है।
नवीन सुनवाई में कोर्ट ने फिर से वही रुख दोहराते हुए कहा कि—
“जहां कार्य और पद मौजूद हैं, वहां आउटसोर्स कर्मचारियों की सेवाएं बिना उचित कारण समाप्त नहीं की जा सकतीं।”
कोर्ट का यह दोहराव इस ओर इशारा करता है कि विभाग को बार-बार न्यायालय की शरण लेने की नौबत नहीं आनी चाहिए, बल्कि उसे अपनी आउटसोर्स नीति को स्पष्ट, स्थायी और पारदर्शी बनाना चाहिए।
मद परिवर्तन: एक आदेश जिसने 2,000 परिवारों को संकट में डाल दिया
कर्मचारियों की समस्या की जड़ 2023 में जारी एक आदेश था, जब तत्कालीन अपर मुख्य सचिव आनंद वर्धन ने यह निर्देश दिया कि आउटसोर्स कर्मियों का भुगतान पारिश्रमिक (दैनिक वेतन) मद से किया जाए।
जबकि परंपरागत रूप से उनका भुगतान मद 27 के तहत होता था—एक स्थायी और निर्बाध वित्तीय प्रावधान।
जैसे ही मद बदला, भुगतान रुकने लगे और पूरे राज्य में आउटसोर्स और पीआरडी कर्मियों की नाराजगी बढ़ने लगी। कई फॉरेस्ट रेंजों में स्टाफ की कमी जैसी स्थिति भी बन गई क्योंकि कर्मियों ने बिना वेतन काम करना बंद कर दिया था।
वास्तव में, मद परिवर्तन का निर्णय बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के लागू किया गया, जिसने हजारों कर्मचारियों को वित्तीय और मानसिक तनाव में डाल दिया।
विरोध, गुस्सा और एक त्रासदी
भुगतान न होने और सेवा समाप्ति की आशंका के बीच देहरादून स्थित वन विभाग कार्यालय के बाहर कर्मचारियों ने कई बार जोरदार प्रदर्शन किए।
तनाव इतना गंभीर हुआ कि देहरादून डीएफओ कार्यालय में कार्यरत एक आउटसोर्स कर्मचारी ने मानसिक और आर्थिक दबाव के चलते आत्महत्या का प्रयास कर लिया।
यह घटना पूरे विभाग के लिए एक चेतावनी थी कि समस्या सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि मानवीय है। आउटसोर्स कर्मचारी अक्सर कम वेतन, अस्थायी अनुबंध और असुरक्षा में काम करते हैं, ऐसे में अचानक सेवा समाप्ति या भुगतान रोकना उनके जीवन पर सीधा असर डालता है।
हाईकोर्ट का हस्तक्षेप: हजारों परिवारों को स्थिरता की उम्मीद
कोर्ट के इस फैसले से वन विभाग के लगभग 2,000 आउटसोर्स कर्मचारियों को तत्काल राहत मिली है। यह फैसला संदेश देता है कि सरकारें जब आउटसोर्स व्यवस्था अपनाती हैं, तो उन्हें कर्मचारियों के अधिकार, भुगतान व्यवस्था और कार्य निरंतरता को लेकर भी जिम्मेदार रहना चाहिए।
हाईकोर्ट का अंतरिम आदेश विभाग को यह स्पष्ट दिशा देता है कि—
- जहां काम उपलब्ध है, वहां सेवाएं जारी रहें
- मनमाने तरीके से कॉन्ट्रैक्ट समाप्त न किया जाए
- भुगतान और पद संरचना को लेकर स्पष्ट नीति बने
इस फैसले ने लंबे समय से वेतन और सेवा संबंधी असुरक्षा झेल रहे कर्मियों को नई ऊर्जा और भरोसा दिया है।
आगे का रास्ता: क्या विभाग नीति सुधार की ओर बढ़ेगा?
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मामला उत्तराखंड में आउटसोर्स प्रणाली की संपूर्ण समीक्षा का अवसर प्रदान करता है। वन विभाग जैसे संवेदनशील क्षेत्र में जहां फील्ड स्टाफ की कमी लंबे समय से चुनौती रही है, वहां अनुभवी आउटसोर्स कर्मियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
फैसला आने के बाद विभाग पर यह जिम्मेदारी और बढ़ गई है कि वह अपनी बजट प्रणाली, भुगतान मद और अनुबंध व्यवस्था को स्थायी, पारदर्शी और कर्मचारी-हितैषी बनाए।
निष्कर्ष
उत्तराखंड हाईकोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक कानूनी आदेश नहीं है—यह उन हजारों परिवारों की उम्मीदों का संबल है, जो मद परिवर्तन और प्रशासनिक निर्णयों के चक्रव्यूह में फंसकर महीनों से असुरक्षा में जी रहे थे।
कोर्ट ने साफ संदेश दे दिया है कि नियमों का पालन करते हुए, न्यायसंगत कारण के बिना किसी कर्मचारी को नौकरी से नहीं हटाया जा सकता। अब पूरे राज्य की निगाहें इस बात पर हैं कि वन विभाग इस राहत को स्थायी समाधान में कैसे बदलता है।



