 
						पिथौरागढ़/देहरादून | उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लापरवाही और फिजूलखर्ची का ऐसा मामला सामने आया है जिसने पूरे राज्य प्रशासन को हिला दिया है।
आरटीआई (सूचना के अधिकार) से मिली जानकारी के मुताबिक, विभाग ने वर्ष 2023 में मरीजों के लिए ₹34,115 प्रति स्टूल की दर से स्टूल खरीदे हैं — यानी एक साधारण लोहे या प्लास्टिक के स्टूल की कीमत, एक उच्च गुणवत्ता वाले ऑफिस चेयर या लैपटॉप से भी अधिक।
दस्तावेज़ों में सामने आए आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि डॉक्टरों की टेबल और रिवॉल्विंग चेयर की कीमतें भी लगभग इतनी ही रखी गईं — जिससे स्पष्ट होता है कि फर्नीचर खरीद में भारी गड़बड़ी और संभावित भ्रष्टाचार की गुंजाइश है।
आरटीआई से खुला मामला
इस मामले का खुलासा तब हुआ जब पिथौरागढ़ निवासी आनंद मल्ल ने अप्रैल 2024 में मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) कार्यालय से एक विस्तृत आरटीआई दायर की।
मल्ल ने हल्द्वानी स्थित एक फर्म से हुई खरीद के संबंध में 14 बिंदुओं पर जानकारी मांगी थी, जिसमें खरीद प्रक्रिया, निविदा, अनुमोदन और भुगतान से जुड़े दस्तावेज़ शामिल थे।
लेकिन विभाग ने जानकारी देने में लगातार टालमटोल की। अंततः मामला राज्य सूचना आयोग तक पहुंचा।
सूचना आयुक्त योगेश भट्ट के निर्देश के बाद विभाग को यह जानकारी सार्वजनिक करनी पड़ी — और यहीं से सामने आया यह चौंकाने वाला फर्नीचर घोटाला।
जानिए कितना खर्च हुआ और कैसे
राज्य सूचना आयोग के आदेश के बाद जारी दस्तावेज़ों के अनुसार, स्वास्थ्य विभाग ने वर्ष 2023 में हल्द्वानी की एक फर्म से 47 रिवॉल्विंग चेयर, 47 डॉक्टर टेबल और 48 स्टूल खरीदे।
- प्रति स्टूल कीमत: ₹34,115
- 48 स्टूल की कुल कीमत: ₹16,37,520
- 47 टेबल की कीमत: ₹16,03,640
- 47 रिवॉल्विंग चेयर की कीमत: ₹16,03,640
कुल व्यय: ₹48,44,800
विशेषज्ञों का कहना है कि इतनी राशि में किसी जिला अस्पताल का पूरा फर्नीचर सेट — बेड से लेकर मॉड्यूलर कैबिनेट तक — खरीदा जा सकता था। एक स्थानीय व्यापारी के मुताबिक, बाजार में इसी प्रकार के स्टूल ₹1,000 से ₹1,500 में मिल जाते हैं। यानी विभाग ने वास्तविक कीमत से लगभग 20 गुना अधिक भुगतान किया।
जानबूझकर देरी और पारदर्शिता पर सवाल
सूचना देने में देरी पर राज्य सूचना आयुक्त योगेश भट्ट ने तत्कालीन डिप्टी सीएमओ पर ₹25,000 का जुर्माना लगाया। आयोग ने अपने आदेश में लिखा कि विभाग ने “जानबूझकर सूचना रोकने की कोशिश की” और यह मामला “प्रशासनिक पारदर्शिता की भावना के खिलाफ” है।
आरटीआई कार्यकर्ता आनंद मल्ल ने इस पर कहा —
“यह सिर्फ एक खरीद का मामला नहीं है। यह इस बात का उदाहरण है कि किस तरह सरकारी धन का उपयोग ‘कागज़ी जरूरतों’ के नाम पर किया जा रहा है। अब इस पर ठोस कार्रवाई जरूरी है।”
सरकारी प्रतिक्रिया का इंतज़ार
अब तक स्वास्थ्य विभाग या राज्य सरकार की ओर से कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया है। हालांकि सूत्रों के अनुसार, स्वास्थ्य सचिव ने मामले की प्रारंभिक जांच के आदेश दे दिए हैं, और संबंधित सीएमओ कार्यालय से रिपोर्ट मांगी गई है।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि यदि खरीद प्रक्रिया में अनियमितता पाई गई, तो न केवल वित्तीय रिकवरी होगी, बल्कि जिम्मेदार अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई और संभावित भ्रष्टाचार के मुकदमे भी चलाए जा सकते हैं।
स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने उठाए सवाल
मामले के सामने आने के बाद स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने भी प्रशासन पर निशाना साधा है। पिथौरागढ़ के पूर्व विधायक और कांग्रेस नेता ने कहा —
“सरकारी अस्पतालों में मरीजों को बुनियादी दवाएं नहीं मिलतीं, जबकि अधिकारियों के कार्यालयों में ₹34 हजार के स्टूल खरीदे जा रहे हैं। यह जनता के पैसों के साथ मज़ाक है।”
वहीं, भाजपा के एक स्थानीय पदाधिकारी ने कहा कि “अगर किसी स्तर पर गड़बड़ी हुई है तो कार्रवाई ज़रूर होनी चाहिए, लेकिन पूरे विभाग को बदनाम करना भी उचित नहीं है।”
आरटीआई बना पारदर्शिता का हथियार
यह मामला एक बार फिर साबित करता है कि आरटीआई (Right to Information) कानून आम नागरिकों के हाथ में कितना सशक्त औज़ार है। सूचना आयोग के आदेश से न केवल यह फिजूलखर्ची उजागर हुई, बल्कि यह भी स्पष्ट हुआ कि विभागीय फाइलों में कितनी आसानी से “अनावश्यक खर्च” को वैध ठहराया जा सकता है।
राज्य सूचना आयुक्त योगेश भट्ट ने अपने आदेश में कहा —
“सूचना देने में देरी पारदर्शिता के सिद्धांतों का उल्लंघन है। सरकारी अधिकारी जनता के प्रति जवाबदेह हैं और ऐसी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण आवश्यक है।”
भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-जागरूकता की जरूरत
सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस तरह के मामले किसी एक जिले या विभाग तक सीमित नहीं हैं।
स्वास्थ्य, शिक्षा और पंचायत जैसे विभागों में आए दिन उच्च दरों पर खरीदी, बिना निविदा प्रक्रिया और फर्जी बिलों के मामले सामने आते रहे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि जनता न केवल आरटीआई का इस्तेमाल करे, बल्कि लोक अभियानों और मीडिया के माध्यम से जवाबदेही की संस्कृति को भी मज़बूत करे।
अब निगाहें सरकार की कार्रवाई पर
आरटीआई से उजागर यह मामला स्वास्थ्य विभाग में बढ़ते भ्रष्टाचार और मनमानी खर्च का एक और उदाहरण बन गया है। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि क्या राज्य सरकार इस प्रकरण में दोषियों पर कड़ी अनुशासनात्मक कार्रवाई करती है, या यह मामला भी कुछ दिनों में ठंडे बस्ते में चला जाएगा।
पिथौरागढ़ का यह मामला केवल “₹34 हजार के स्टूल” की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस प्रणालीगत लापरवाही और जवाबदेही की कमी की कहानी है, जो भारत के कई जिलों के सरकारी दफ्तरों में गहराई से बैठी हुई है।
आरटीआई ने भले ही इस गंदगी का पर्दाफाश कर दिया हो, लेकिन असली बदलाव तब होगा जब ऐसी खरीद के पीछे बैठे अफसरों पर कार्रवाई वास्तव में दिखाई दे।
 
				


