
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि कोई भी आरोपी, जिसे जांच अवधि के विस्तार (Extension of investigation period) की जानकारी थी लेकिन उसने उस आदेश के खिलाफ समय रहते आपत्ति नहीं की, वह बाद में डिफ़ॉल्ट ज़मानत (Default Bail) का दावा नहीं कर सकता। यह फैसला कोर्ट ने क़मर ग़नी उस्मानी बनाम गुजरात राज्य [2023 LiveLaw (SC) 297] केस की सुनवाई के दौरान दिया।
यह निर्णय Code of Criminal Procedure (CrPC) की धारा 167(2) की व्याख्या करते हुए आया, जो कहती है कि यदि चार्जशीट तय समय सीमा — अधिकतर मामलों में 60 या 90 दिन — के भीतर दाख़िल नहीं होती, तो आरोपी को डिफ़ॉल्ट ज़मानत का अधिकार मिल जाता है। मगर इस केस में मुख्य सवाल यह था कि यदि जांच अवधि की पहली एक्सटेंशन आरोपी की गैर-मौजूदगी में दी गई हो, लेकिन उसे उसकी जानकारी थी और उसने कोई कानूनी चुनौती नहीं दी, तो क्या वह डिफ़ॉल्ट ज़मानत मांग सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का तर्क: जानकारी होने के बावजूद चुप रहना ‘स्वीकृति’ मानी जाएगी
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर आरोपी को यह जानकारी थी कि उसके मामले में जांच की समयसीमा को बढ़ाया गया है, और इसके बावजूद उसने कोई आपत्ति नहीं जताई, तो उसे यह माना जाएगा कि उसने उस आदेश को स्वीकार कर लिया है।
अदालत ने कहा, “यदि किसी आरोपी को एक्सटेंशन आदेश की जानकारी थी और फिर भी उसने समय पर विरोध नहीं किया, तो वह उस आदेश की वैधता को बाद में चुनौती नहीं दे सकता।”
‘संजय दत्त’ और ‘हितेन्द्र ठाकुर’ केसों का हवाला
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पूर्व निर्णयों का हवाला दिया:
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हितेन्द्र विष्णु ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1994) में कहा गया था कि आरोपी को एक्सटेंशन से पहले सूचना दी जानी चाहिए ताकि वह विरोध कर सके।
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लेकिन बाद में संजय दत्त बनाम राज्य (CBI) (1994) में यह तय किया गया कि लिखित सूचना जरूरी नहीं, लेकिन आरोपी की मौखिक उपस्थिति ज़रूरी है।
कोर्ट ने यह माना कि उपस्थिति से आशय यह है कि आरोपी को प्रक्रिया की जानकारी होनी चाहिए। यदि उसे अगले दिन यह जानकारी मिल गई और उसने उस पर कोई आपत्ति नहीं की, तो उसे बाद में डिफ़ॉल्ट ज़मानत का लाभ नहीं मिल सकता।
जिगर आदित्य केस की स्थिति भिन्न थी
अपीलकर्ता ने जिगर उर्फ जिमी प्रविणचंद्र आदित्य बनाम गुजरात राज्य (2022) का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि अगर एक्सटेंशन आरोपी की गैर-मौजूदगी में दी गई हो तो उसे अवैध माना जाएगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह केस भिन्न था क्योंकि वहां आरोपी ने समय रहते आदेश को चुनौती दी थी, जबकि क़मर ग़नी उस्मानी मामले में ऐसा नहीं हुआ।
कानूनी चुप्पी को ‘स्वीकृति’ माना जाएगा
अदालत ने एक अहम कानूनी सिद्धांत दोहराया: Waiver and Acquiescence, यानी यदि कोई व्यक्ति किसी आदेश के विरुद्ध समय पर कुछ नहीं कहता, तो यह मान लिया जाएगा कि उसने उसे स्वीकार कर लिया है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 167(2) के तहत मिलने वाला डिफ़ॉल्ट ज़मानत का अधिकार “स्वचालित या अनंत” नहीं होता। यह एक सीमित और सशर्त अधिकार है, जिसे उचित समय में प्रयोग में लाना ज़रूरी है।
निष्कर्ष: ‘डिफ़ॉल्ट ज़मानत’ सुरक्षा है, छूट नहीं
अदालत ने स्पष्ट किया कि डिफ़ॉल्ट ज़मानत एक सुरक्षा उपाय (safeguard) है, जिसे आरोपी को बिना देरी के प्रयोग करना चाहिए। यह किसी कानूनी प्रक्रिया का विकल्प नहीं है जिसे बाद में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सके।
यह फैसला उन मामलों के लिए दिशानिर्देशक साबित होगा, जहां अभियोजन जांच की समयसीमा बढ़ाने का प्रयास करता है और आरोपी उस पर समय रहते प्रतिक्रिया नहीं करता। इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि आरोपी पक्ष प्रक्रियात्मक तकनीकीताओं के नाम पर न्यायिक प्रक्रिया को बाधित न कर सके।