
नई दिल्ली: उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर देश की राजनीति में नया तूफ़ान खड़ा हो गया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शनिवार को विपक्षी गठबंधन INDIA और कांग्रेस पर तीखा हमला करते हुए कहा कि उन्होंने नक्सलवाद समर्थक सोच रखने वाले व्यक्ति को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को ठेस पहुंचाई है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट जैसे पवित्र मंच का भी राजनीतिक इस्तेमाल किया है।
विपक्षी गठबंधन की ओर से सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया गया है। शाह ने दावा किया कि न्यायमूर्ति रेड्डी के सुप्रीम कोर्ट में दिए गए कई फैसले नक्सली विचारधारा के अनुकूल रहे हैं। उन्होंने कहा, “यह वही कांग्रेस है जो हमेशा वामपंथी दबाव में निर्णय लेती रही है। उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद के लिए जिस व्यक्ति को चुना गया है, उसके पुराने फैसले नक्सलवाद को वैचारिक संरक्षण देने वाले रहे हैं। यह देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए खतरनाक है।”
सुप्रीम कोर्ट में दिए गए फैसलों पर उठे सवाल
अमित शाह ने विशेष रूप से सुदर्शन रेड्डी द्वारा दिए गए कुछ ऐतिहासिक लेकिन विवादित फैसलों का उल्लेख किया। शाह का आरोप था कि उन फैसलों ने सुरक्षा बलों की कार्रवाई को कठघरे में खड़ा किया और नक्सलियों को वैचारिक ढाल प्रदान की। भाजपा के अनुसार, यह वही सोच है जिसे वामपंथी दल लगातार आगे बढ़ाते रहे हैं और अब कांग्रेस उसी एजेंडे के तहत उन्हें उपराष्ट्रपति पद की दौड़ में उतार रही है।
विपक्ष का पलटवार: “भाजपा घबराई हुई है”
वहीं कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ने अमित शाह के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा, “न्यायमूर्ति सुदर्शन रेड्डी का पूरा करियर संविधान और न्याय की रक्षा में गुज़रा है। भाजपा विपक्ष की एकजुटता से डरी हुई है, इसलिए व्यक्तिगत हमले कर रही है।”
विपक्ष का कहना है कि रेड्डी एक निष्पक्ष और संवैधानिक मूल्यों के प्रति समर्पित उम्मीदवार हैं और भाजपा जानबूझकर उन्हें नक्सलवाद से जोड़कर जनता को गुमराह करना चाहती है।
उपराष्ट्रपति चुनाव बना प्रतिष्ठा की लड़ाई
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह विवाद उपराष्ट्रपति चुनाव को और भी रोचक बना देगा। एक ओर भाजपा और एनडीए खेमे की कोशिश है कि विपक्षी उम्मीदवार को “विवादित और विचारधारा-प्रेरित” बताया जाए, वहीं विपक्ष इसे लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई के तौर पर पेश कर रहा है।
उपराष्ट्रपति चुनाव में भले ही आंकड़ों का पलड़ा सत्तारूढ़ एनडीए के पक्ष में दिखाई दे रहा हो, लेकिन विपक्ष इस मुद्दे को नैतिक और वैचारिक स्तर पर उठाकर राजनीतिक लाभ लेने की रणनीति पर काम कर रहा है।
जनता की नजर में बड़ा सवाल
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या उपराष्ट्रपति पद जैसी संवैधानिक कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति पूरी तरह निष्पक्ष और तटस्थ रह पाएगा या फिर उसके पुराने विचार और फैसले उसकी छवि पर हावी रहेंगे? भाजपा जहां इसे “संविधान और लोकतंत्र की रक्षा” का सवाल बता रही है, वहीं विपक्ष इसे “संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा” से जोड़ रहा है।
नतीजा: सियासी तापमान और चढ़ा
इस पूरे घटनाक्रम ने उपराष्ट्रपति चुनाव को सिर्फ औपचारिक प्रक्रिया भर नहीं रहने दिया, बल्कि इसे एक बड़ी राजनीतिक बहस में बदल दिया है। आने वाले दिनों में भाजपा और विपक्ष दोनों ही इस मुद्दे को लेकर देशव्यापी मुहिम चलाते नज़र आएंगे। निश्चित रूप से यह चुनाव न केवल संसद के गलियारों में बल्कि जनता की अदालत में भी चर्चा का बड़ा विषय बन चुका है।