नयी दिल्ली: कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के लोकसभा में दिए गए बयान को गलत तरीके से उद्धृत करने के मामले में फंसे सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर रौशन सिन्हा को उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को अग्रिम जमानत दे दी। अदालत ने कहा कि इस मामले में गिरफ्तारी की कोई आवश्यकता नहीं है और आरोपी की हिरासत में पूछताछ भी अनुचित होगी।
गिरफ्तारी को बताया ‘‘अनावश्यक’’
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट कहा कि आरोपों की प्रकृति को देखते हुए यह मामला व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अनुचित अंकुश लगाने जैसा प्रतीत होता है। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष की ओर से ऐसा कोई ठोस आधार प्रस्तुत नहीं किया गया, जिससे यह साबित हो सके कि रौशन सिन्हा की गिरफ्तारी जांच के लिए आवश्यक है।
पीठ ने अपने आदेश में कहा,
“केवल इसलिए कि किसी व्यक्ति ने किसी सार्वजनिक बयान को सोशल मीडिया पर साझा या व्याख्यायित किया है, उसे आपराधिक प्रक्रिया में घसीटना उचित नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि स्पष्ट रूप से द्वेष या दुर्भावनापूर्ण मंशा न दिखाई दे।”
मामला क्या है?
यह विवाद तब शुरू हुआ जब राहुल गांधी ने संसद में एक सत्र के दौरान कृषि और रोजगार से जुड़ा एक वक्तव्य दिया था, जिसे रौशन सिन्हा ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आंशिक रूप से उद्धृत करते हुए एक वीडियो पोस्ट किया। कांग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया था कि वीडियो को इस तरह एडिट किया गया था कि उसका अर्थ पूरी तरह बदल गया और इससे राहुल गांधी की छवि को नुकसान पहुंचा।
इसके बाद, दिल्ली पुलिस की साइबर सेल ने रौशन सिन्हा के खिलाफ आईटी अधिनियम की धारा 66D और आईपीसी की धारा 505(2) (साम्प्रदायिक सौहार्द भंग करने की आशंका) के तहत मामला दर्ज किया था।
पहले हाईकोर्ट ने दी थी अंतरिम राहत
रौशन सिन्हा ने पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत की याचिका दायर की थी, जहाँ से उन्हें अस्थायी राहत दी गई थी। हालांकि, उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट के लिए खुला छोड़ा था कि अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति के अधीन रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा — ‘‘स्वतंत्र अभिव्यक्ति की सीमा में आता है मामला’’
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया पर किसी राजनीतिक भाषण को साझा या विश्लेषित करना लोकतांत्रिक विमर्श का हिस्सा है।
न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा,
“राजनीतिक बहस में आलोचना और मतभेद लोकतंत्र के स्वस्थ घटक हैं। जब तक किसी के बयान से हिंसा भड़काने या सार्वजनिक व्यवस्था भंग करने का सीधा खतरा न हो, तब तक दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।”
अदालत ने यह भी कहा कि फेक न्यूज और जानबूझकर भ्रामक सामग्री के खिलाफ कार्रवाई जरूरी है, लेकिन हर आलोचना या संपादित क्लिप को आपराधिक इरादे से जोड़ना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होगा।
अदालत ने जांच जारी रखने की अनुमति दी
हालांकि अदालत ने यह स्पष्ट किया कि अग्रिम जमानत देने का अर्थ यह नहीं है कि जांच रद्द हो गई है। अदालत ने कहा कि पुलिस और जांच एजेंसियां मामले की जांच प्रक्रिया जारी रख सकती हैं, लेकिन रौशन सिन्हा को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि सिन्हा सभी जांच में सहयोग करें, आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करें और अपने डिजिटल उपकरणों की जांच में बाधा न डालें।
सोशल मीडिया और अभिव्यक्ति पर व्यापक टिप्पणी
इस मामले पर न्यायालय ने सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं के अधिकारों और जिम्मेदारियों पर भी टिप्पणी की।
न्यायमूर्ति अरविंद कुमार ने कहा,
“आज के डिजिटल युग में हर व्यक्ति एक संभावित प्रकाशक है। इसलिए, साझा की गई जानकारी की सत्यता का ध्यान रखना नागरिक कर्तव्य है। लेकिन अभिव्यक्ति के लिए दंडात्मक कदम अंतिम विकल्प होना चाहिए, न कि पहला।”
अदालत ने सरकारों और राजनीतिक दलों को सलाह दी कि वे आलोचना को लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रक्रिया मानें और ऐसे मामलों में संवाद का मार्ग अपनाएं, न कि दमनात्मक कार्रवाई का।
कानूनी विशेषज्ञों ने फैसले को बताया ‘‘संतुलित’’
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन का प्रतीक है।
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने कहा,
“यह फैसला एक संदेश देता है कि सोशल मीडिया युग में कानून को विवेकपूर्ण ढंग से लागू करने की जरूरत है। किसी भी व्यक्ति को केवल विचार व्यक्त करने पर अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।”
रौशन सिन्हा को अग्रिम जमानत मिलने से यह मामला अब राजनीतिक और कानूनी दोनों ही दृष्टि से चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संविधान प्रदत्त अधिकार (अनुच्छेद 19(1)(a)) की रक्षा के रूप में देखा जा रहा है।
वहीं, अदालत ने यह भी संकेत दिया कि डिजिटल माध्यमों पर झूठे या भ्रमित करने वाले बयान प्रसारित करना दंडनीय रहेगा, यदि उसमें दुर्भावना या दुष्प्रचार का तत्व सिद्ध होता है।
इस आदेश के साथ, अदालत ने लोकतांत्रिक संवाद की मर्यादा और नागरिक स्वतंत्रता — दोनों के बीच संवैधानिक संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक और अहम उदाहरण प्रस्तुत किया है।



