
नई दिल्ली: भारत की न्यायिक प्रणाली एक बार फिर गंभीर बहस के केंद्र में है। देशभर की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या नए रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है, जिससे न्याय प्रक्रिया की गति और क्षमता पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। गुरुवार को राज्यसभा में पेश किए गए नवीनतम आंकड़ों में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक भारत में 5.49 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं—एक ऐसी संख्या जो न्यायिक ढांचे पर अभूतपूर्व दबाव की ओर संकेत करती है।
ये आंकड़े न सिर्फ न्यायिक व्यवस्था की वर्तमान चुनौतियों का आईना हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि अगर तुरंत सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो न्याय तक समय पर पहुंच आम नागरिकों के लिए और कठिन होती जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट से निचली अदालतों तक लंबित मामलों का व्यापक चित्र
मेघवाल द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, अदालत-स्तर पर लंबित मामलों की स्थिति इस प्रकार है—
- सुप्रीम कोर्ट: 90,897 लंबित मामले
- 25 उच्च न्यायालय: 63,63,406 मामले
- निचली अदालतें (8 दिसंबर तक): 4,84,57,343 मामले
- कुल लंबित मामले: 5.49 करोड़ से अधिक
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि न्यायिक ढांचे का सबसे भारी बोझ निचली अदालतों पर है, जहां 88% से ज्यादा लंबित मामले केंद्रित हैं। यह वह न्यायिक स्तर है जहाँ से अधिकांश नागरिक अपनी कानूनी यात्रा शुरू करते हैं। इतनी भारी लंबित संख्या न्याय तक पहुंच को बाधित करती है और अक्सर वर्षों तक फैसलों में देरी का कारण बनती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि मामलों की तेजी से बढ़ती संख्या केस-मैनेजमेंट सिस्टम और डिजिटल ढांचे की क्षमता पर भी सवाल खड़े करती है।
क्यों बढ़ रहे हैं इतने मामले? कारण गहरे और बहुआयामी
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने सदन में बताया कि अदालतों में मामलों के लंबित रहने के पीछे कई कारण काम कर रहे हैं। ये कारण केवल न्यायिक या प्रशासनिक नहीं बल्कि सामाजिक, तकनीकी और संरचनात्मक स्तरों से भी जुड़े हैं।
1. जटिल तथ्य और साक्ष्य
भारत जैसे विविध और जनसंख्या-समृद्ध देश में कई मामले सामाजिक, आर्थिक और कानूनी तौर पर बेहद जटिल होते हैं। इन मामलों में साक्ष्य की प्रकृति विस्तृत और समय लेने वाली होती है, जिससे फैसलों में देरी होती है।
2. हितधारकों का पर्याप्त सहयोग न मिलना
मुकदमों की गति बार-बार इसलिए भी बाधित होती है क्योंकि सभी संबंधित पक्ष—वकील, गवाह, जांच एजेंसियां और वादी—हमेशा लगातार उपस्थित नहीं हो पाते। एक तारीख आगे बढ़ती है और मामला कई महीनों तक ठहर जाता है।
3. न्यायिक बुनियादी ढांचे की कमी
भारत की अदालतों में तकनीकी और भौतिक संसाधनों की कमी एक बड़ा कारक है। कई कोर्टरूम पुराने ढांचे में काम कर रहे हैं, जहां डिजिटल रिकॉर्डिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, केस ट्रैकिंग जैसी आधुनिक सुविधाएं या तो सीमित हैं या उपलब्ध ही नहीं।
4. सहायक अदालती कर्मचारियों की कमी
स्टाफ की कमी—जैसे कोर्ट क्लर्क, स्टेनोग्राफर, और रिकॉर्ड मैनेजमेंट कर्मचारी—कई बार केस प्रोसेसिंग को धीमा कर देती है।
5. न्यायाधीशों के पद खाली रहना — सबसे बड़ा कारण
विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में न्यायिक देरी के पीछे सबसे गंभीर कारण है जजों के पद लंबी अवधि तक खाली रहना।
देश के उच्च न्यायालयों और जिला अदालतों में सैकड़ों पद खाली पड़े रहते हैं। इससे प्रति न्यायाधीश औसतन मामलों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है।
उदाहरण के लिए, कई जिला अदालतों में एक जज पर 8,000 से 12,000 तक मामले पड़े रहते हैं—जो किसी भी सूरत में व्यावहारिक कार्यभार नहीं है।
क्या न्यायिक नियुक्तियों में तेजी ला पाएगी सरकार?
केंद्र सरकार का कहना है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां गति पकड़ रही हैं, लेकिन विशेषज्ञों का मत है कि नियुक्तियों और रिटायरमेंट के अंतर को देखते हुए वास्तविक प्रगति अभी भी काफी धीमी है।
जब तक नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता, समन्वय और गति नहीं आएगी, तब तक लंबित मामलों का पहाड़ कम होना मुश्किल है।
डिजिटल इंडिया और ई-कोर्ट्स प्रोजेक्ट — क्या यह समस्या का समाधान है?
भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में ई-कोर्ट्स प्रोजेक्ट, वर्चुअल हियरिंग और ई-फाइलिंग जैसी पहलों पर जोर दिया है।
इनसे कुछ सुधार तो हुए हैं, लेकिन देश की विशाल आबादी और मुकदमों की संख्या को देखते हुए ये कदम अभी भी अपर्याप्त माने जा रहे हैं।
कई ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में—
- इंटरनेट की सीमित पहुंच
- तकनीकी प्रशिक्षण की कमी
- डिजिटल दस्तावेज़ प्रबंधन की चुनौतियाँ
इन पहलों को पूरी तरह सफल होने से रोकती हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि ई-कोर्ट्स व्यवस्था तभी प्रभावी होगी जब अदालतें डिजिटल रूप से उतनी सक्षम हों जितना कि आधुनिक न्यायिक प्रणाली मांग करती है।
भारतीय न्याय व्यवस्था के सामने गंभीर भविष्यगत चुनौतियाँ
अगर लंबित मामलों की संख्या इसी गति से बढ़ती रही तो यह भारत की न्याय प्रक्रिया को और धीमा कर सकती है। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे—
- नागरिकों में न्याय प्रणाली पर भरोसा कम होना
- आर्थिक मामलों और निवेश विवादों के निपटारे में देरी
- अपराध मामलों में देर से न्याय, जिससे कानूनी प्रक्रिया पर सवाल खड़े हो सकते हैं
- जेलों में बढ़ती अंडर-ट्रायल आबादी
यह एक ऐसी समस्या है जो केवल न्यायालयों की नहीं, बल्कि शासन और समाज दोनों की संयुक्त चुनौती है।
क्या समाधान संभव है? विशेषज्ञों की राय
कानूनी विशेषज्ञ और पूर्व न्यायाधीशों के अनुसार कुछ उपाय अत्यंत आवश्यक हैं—
- न्यायाधीशों की नियुक्ति तेज की जाए
- अदालतों में स्टाफ और संसाधन बढ़ाए जाएं
- प्रक्रियाओं का सरलीकरण और केस मैनेजमेंट सिस्टम लागू हो
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की संख्या बढ़े
- तकनीकी साधनों का अधिकतम उपयोग हो
इसके साथ ही लोगों को अदालतों पर निर्भर रहने के बजाय मध्यस्थता और सुलह-समझौते जैसी वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा।
निष्कर्ष
5.49 करोड़ से अधिक लंबित मामलों का आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली पर भारी दबाव की गंभीर चेतावनी है। जब तक न्यायिक ढांचे को मजबूत करने, नियुक्तियों में तेजी लाने और अदालतों को तकनीकी रूप से सक्षम बनाने के लिए बड़े पैमाने पर सुधार नहीं किए जाते, तब तक यह स्थिति और जटिल हो सकती है।
भारत के लिए यह न केवल एक प्रशासनिक चुनौती है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की विश्वसनीयता से जुड़ा मुद्दा भी है—क्योंकि न्याय में देरी, न्याय का इनकार भी माना जाता है।



