
नई दिल्ली, 12 नवंबर: कांग्रेस ने बुधवार को केंद्र सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठित नई संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का उद्देश्य लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करना और असंवैधानिक एजेंडा आगे बढ़ाना है। पार्टी ने कहा कि यह समिति ‘‘भाजपा और उसकी टीम की जेपीसी’’ है, जो प्रधानमंत्री के ‘‘असंवैधानिक एजेंडे का सिर्फ रबर स्टैंप’’ बनकर रह जाएगी।
गौरतलब है कि संसद में हाल ही में तीन विवादास्पद विधेयक पेश किए गए हैं जिनमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को पद से हटाने के प्रावधान शामिल हैं। इन्हीं विधेयकों की जांच और अनुशंसा के लिए यह नई संयुक्त संसदीय समिति गठित की गई है। कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने इस समिति से दूरी बनाने का निर्णय लिया है, यह कहते हुए कि समिति का गठन निष्पक्षता और संसदीय परंपरा के मानकों पर खरा नहीं उतरता।
कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने बुधवार को एक बयान जारी करते हुए कहा, “यह तथाकथित जेपीसी सिर्फ नाम के लिए संयुक्त है, असल में यह भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों की एकतरफा समिति है। प्रधानमंत्री इस समिति के माध्यम से संवैधानिक ढांचे में बदलाव का रास्ता तलाश रहे हैं, जिसे कांग्रेस और विपक्षी दल किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं करेंगे।”
उन्होंने कहा कि संसद में विचाराधीन ये तीनों विधेयक संविधान की भावना के विरुद्ध हैं और कार्यपालिका को असीमित अधिकार देने का प्रयास हैं। रमेश ने आरोप लगाया कि सरकार लोकतांत्रिक जवाबदेही को खत्म करने और संसद को ‘‘मौन दर्शक’’ बनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
विपक्षी दलों का विरोध
कांग्रेस के अलावा, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, राष्ट्रीय जनता दल, शिवसेना (यूबीटी), समाजवादी पार्टी और कई अन्य विपक्षी दलों ने भी समिति से दूरी बनाई है। उनका कहना है कि समिति का गठन विचार-विमर्श की बजाय वैधानिक वैधता देने का औजार बन चुका है।
विपक्षी नेताओं का तर्क है कि संयुक्त संसदीय समिति का गठन तभी सार्थक होता है जब उसमें सभी दलों को बराबर प्रतिनिधित्व और स्वतंत्रता मिले, लेकिन इस बार समिति में बहुमत सत्तारूढ़ दल के सांसदों का है, जिससे इसके निर्णयों की निष्पक्षता पर प्रश्न उठ रहे हैं।
कांग्रेस ने जताई गंभीर चिंता
कांग्रेस ने कहा कि यह समिति संसद की मूल भावना और संसदीय समितियों की परंपरा के विपरीत दिशा में गठित की गई है। पार्टी नेताओं ने चेतावनी दी कि अगर इस समिति के माध्यम से किसी भी असंवैधानिक प्रावधान को वैधता देने की कोशिश की गई, तो कांग्रेस संसद से सड़क तक आंदोलन करेगी।
एक अन्य वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा, “प्रधानमंत्री संवैधानिक संस्थाओं को अपने अधीन लाने की कोशिश कर रहे हैं। यह समिति उसी प्रयास का हिस्सा है। यह न तो संयुक्त है और न ही संसदीय, बल्कि केवल प्रधानमंत्री की इच्छा को पूरा करने वाली है।”
सरकार की दलील
वहीं, सरकार का पक्ष है कि संयुक्त संसदीय समिति का गठन लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा है और इसका उद्देश्य व्यापक विचार-विमर्श के बाद सुधारात्मक सिफारिशें देना है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि विपक्ष सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है, जबकि समिति में उन्हें अपने विचार रखने का पूरा अवसर दिया गया है।
उन्होंने कहा कि देश में जवाबदेही और सुशासन की दिशा में यह एक ऐतिहासिक सुधार है, जिससे प्रशासनिक तंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों बढ़ेंगी।
पृष्ठभूमि और राजनीतिक महत्व
विश्लेषकों के अनुसार, इन तीनों विधेयकों को लेकर देश की राजनीतिक फिज़ा में नया तनाव पैदा हो गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर प्रधानमंत्री और मंत्रियों को हटाने की प्रक्रिया में संसद के बाहर कोई समिति निर्णायक भूमिका निभाती है, तो यह संविधान के शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत पर गंभीर प्रभाव डाल सकता है।
संविधान विशेषज्ञों ने भी चेतावनी दी है कि यदि समिति का स्वरूप और कार्यप्रणाली संतुलित नहीं रखी गई, तो यह संसदीय लोकतंत्र के मूल ढांचे को कमजोर कर सकती है।
वर्तमान विवाद को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि नई संयुक्त संसदीय समिति केवल विधायी मुद्दा नहीं, बल्कि राजनीतिक और संवैधानिक संघर्ष का केंद्रबिंदु बन चुकी है। एक ओर केंद्र सरकार इसे प्रशासनिक सुधार की दिशा में ठोस कदम बता रही है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष इसे लोकतंत्र के ‘‘संवैधानिक चरित्र’’ पर हमला बता रहा है।
अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि समिति अपने कामकाज को किस तरह आगे बढ़ाती है और आने वाले संसदीय सत्र में इन विधेयकों पर क्या निर्णय सामने आता है।



