
पटना/नई दिल्ली: बिहार की राजनीति एक बार फिर उबाल पर है। 2025 के विधानसभा चुनाव की आहट साफ दिखाई देने लगी है और तमाम दल अपनी-अपनी रणनीति को धार देने में जुट गए हैं। इस बार सुर्खियों में हैं लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान। एक ओर वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कानून-व्यवस्था पर खुलेआम सवाल उठा रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा के साथ भी “दबाव की राजनीति” कर रहे हैं।
गठबंधन के लिए दोधारी तलवार
चिराग पासवान ने हाल के महीनों में जिस अंदाज में बिहार की कानून-व्यवस्था को “ध्वस्त” बताया और हत्या-अपहरण के मामलों को राज्य सरकार की विफलता से जोड़ा, उसने जेडीयू और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) जैसे सहयोगियों को असहज कर दिया। भाजपा ने भी चिराग के बयानों पर खुलकर समर्थन देने से परहेज किया और संयमित प्रतिक्रिया देना ही बेहतर समझा।
विश्लेषकों का मानना है कि चिराग की यह शैली गठबंधन के लिए दोधारी तलवार बन चुकी है—वे NDA का हिस्सा रहते हुए भी NDA सरकार की आलोचना करके विपक्षी भूमिका निभा रहे हैं।
चिराग भाजपा की मजबूरी क्यों?
भाजपा अच्छी तरह जानती है कि दलित वोटबैंक, खासकर पासवान समुदाय, बिहार के चुनावी अंकगणित में निर्णायक भूमिका निभाता है। रामविलास पासवान की विरासत अब पूरी तरह चिराग के पास है।
2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग ने अकेले चुनाव लड़कर जेडीयू को नुकसान और भाजपा को परोक्ष फायदा पहुंचाया था। इस बार भी वे यही संकेत दे रहे हैं कि अगर उनकी शर्तें पूरी नहीं हुईं तो वे NDA को कठिनाइयों में डाल सकते हैं। भाजपा के लिए चिराग एक “अनिवार्य सहयोगी” बन चुके हैं।
सौदेबाजी में चिराग की रणनीति
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि चिराग पासवान सीट बंटवारे और भविष्य की राजनीति को लेकर भाजपा से बड़े सौदे की ओर बढ़ रहे हैं। उनकी मुख्य मांगें इस प्रकार मानी जा रही हैं:
- बिहार विधानसभा चुनाव में सम्मानजनक सीटों की संख्या।
- मोदी सरकार में और महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी।
- भाजपा की राजनीति में एक प्रमुख दलित चेहरा बनने की मान्यता।
- अपने विजन डॉक्युमेंट “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” को लागू करने की कोशिश।
- खुद को भविष्य के संभावित मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करना।
चौपाल और बिहारी एजेंडा
एलजेपी (रामविलास) ने हाल ही में ‘चिराग का चौपाल’ नाम से जनसंपर्क अभियान शुरू किया है। इसके तहत चिराग गांव-गांव जाकर जनता की राय सुनेंगे और उसे पार्टी के एजेंडे से जोड़ेंगे।
इसी के साथ उनका पुराना विजन डॉक्युमेंट ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ भी फिर से चर्चा में है। यह अभियान सिर्फ चुनावी तैयारी नहीं बल्कि भाजपा पर दबाव बनाने की भी रणनीति है। चिराग यह संदेश देना चाहते हैं कि वे सिर्फ सहयोगी पार्टी के नेता नहीं बल्कि स्वतंत्र जनाधार वाले खिलाड़ी हैं।
नीतीश-भाजपा रिश्तों पर असर
चिराग के तीखे हमले सीधे-सीधे नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू पर पड़ रहे हैं। भाजपा फिलहाल नीतीश के साथ सत्ता में है, लेकिन चिराग की बयानबाज़ी ने गठबंधन के भीतर तनाव को बढ़ा दिया है।
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि भाजपा को एक ओर नीतीश की सरकार को संभालना है, वहीं दूसरी ओर चिराग की नाराजगी भी दूर करनी है। यही वजह है कि भाजपा खुलकर चिराग के खिलाफ नहीं जाती।
क्या होगा 2025 का समीकरण?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तीन बड़े ध्रुव साफ दिखाई दे रहे हैं:
- महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट)
- एनडीए (भाजपा, जेडीयू, हम, एलजेपी-रामविलास)
- चिराग पासवान की स्वतंत्र ताकत
अगर चिराग भाजपा के साथ बने रहते हैं तो NDA को दलित वोटबैंक का बड़ा फायदा होगा। लेकिन अगर वे नाराज़ होकर अलग राह चुनते हैं, तो इसका सीधा नुकसान भाजपा-जेडीयू गठबंधन को झेलना पड़ेगा।
बिहार की राजनीति एक बार फिर दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है। चिराग पासवान ने अपने राजनीतिक तेवर और रणनीति से खुद को सुर्खियों में ला खड़ा किया है। भाजपा के लिए वे मजबूरी भी हैं और विकल्प भी। आने वाले महीनों में यह साफ होगा कि चिराग NDA के “विजेता कार्ड” साबित होंगे या “चुनावी सिरदर्द”।