
कोच्चि/नई दिल्ली: केरल हाई कोर्ट ने मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति से जुड़े एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि मंदिर में संथी (मुख्य पुजारी) नियुक्त करने के लिए किसी विशेष जाति या वंश से होना अनिवार्य नहीं है। कोर्ट ने कहा कि जाति या वंश आधारित चयन संविधान की भावना के खिलाफ है और इसे धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
इस फैसले को भारतीय न्यायपालिका द्वारा धर्म और समानता के संतुलन के रूप में देखा जा रहा है। अदालत ने साफ किया कि “धार्मिक परंपरा” के नाम पर किसी को सामाजिक या जातीय आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता।
फैसला: केरल हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच का बड़ा निर्णय
यह महत्वपूर्ण फैसला जस्टिस राजा विजयराघवन वी. और जस्टिस केवी जयकुमार की डिवीजन बेंच ने सुनाया।
यह मामला “अखिल केरल तंत्री समाजम एवं एक अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य” के रूप में दर्ज था।
याचिकाकर्ताओं ने यह दावा किया था कि केवल पारंपरिक तंत्री (पुरोहित) परिवारों के लोग ही पुजारी बन सकते हैं और अन्य जातियों या वंशों के लोगों को यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए।
लेकिन अदालत ने इस तर्क को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा —
“संविधान समानता और अवसर की गारंटी देता है। जाति या वंश आधारित विशेषाधिकार धार्मिक स्वतंत्रता के दायरे में नहीं आते। कोई भी व्यक्ति, जो योग्य है और तंत्र विद्यालयों से प्रशिक्षण प्राप्त कर चुका है, पुजारी बनने का अधिकारी है।”
तंत्र विद्यालयों की डिग्री को मान्यता मिली
कोर्ट ने त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड (TDB) और केरल देवस्वोम भर्ती बोर्ड (KDRB) के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया था कि तंत्र विद्यालयों से प्राप्त प्रमाणपत्र पुजारी बनने की योग्यता के लिए मान्य हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि अब पारंपरिक पुजारी वंश से इतर भी, जो व्यक्ति तंत्रशास्त्र और पूजन विधि की औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर चुका है, वह मंदिर में सेवा कर सकता है।
अदालत ने कहा कि यह फैसला धर्म की आत्मा के अनुरूप है, क्योंकि पूजा करने का अधिकार ज्ञान और आचरण पर आधारित होना चाहिए, न कि जन्म पर।
अदालत का तर्क — “जातिवाद धर्म का हिस्सा नहीं”
हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 25 का हवाला दिया —
- अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता
- अनुच्छेद 15: जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध
- अनुच्छेद 25: धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अदालत ने कहा कि “धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार व्यक्तिगत आस्था तक सीमित है, यह किसी को सामाजिक रूप से वंचित करने का लाइसेंस नहीं है।”
फैसले में यह भी कहा गया कि यदि कोई धार्मिक प्रथा संविधान के मूल मूल्यों — समानता, गरिमा और सामाजिक न्याय — के खिलाफ जाती है, तो वह संवैधानिक संरक्षण नहीं पा सकती।
पृष्ठभूमि: परंपरा बनाम समानता का विवाद
केरल और दक्षिण भारत के कई हिस्सों में लंबे समय से यह परंपरा रही है कि मंदिरों में पुजारी का पद कुछ विशेष ब्राह्मण वंशों या तंत्री परिवारों तक सीमित रहता था।
लेकिन 1970 के दशक के बाद से इस परंपरा को चुनौती देने की कोशिशें होती रही हैं।
1972 में केरल के गुरुवायूर मंदिर में भी इसी तरह का विवाद उठा था, जब राज्य सरकार ने “गैर-ब्राह्मण संथियों” की नियुक्ति की अनुमति दी थी।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना था कि कोई भी व्यक्ति, यदि धार्मिक रीति-रिवाजों की शिक्षा प्राप्त कर चुका है, तो वह पूजा कर सकता है।
केरल हाई कोर्ट का यह नया फैसला उसी न्यायिक परंपरा को आगे बढ़ाता है।
धार्मिक संस्थानों में सुधार की दिशा में बड़ा कदम
कानूनी विशेषज्ञों और सामाजिक सुधारकों ने इस फैसले का स्वागत किया है।
केरल के वरिष्ठ अधिवक्ता पी. शिवदासन का कहना है —
“यह फैसला न सिर्फ केरल के लिए बल्कि पूरे भारत के धार्मिक संस्थानों के लिए मिसाल बनेगा। मंदिर में सेवा ज्ञान से तय होनी चाहिए, जन्म से नहीं।”
वहीं समाजशास्त्री डॉ. बीना विजयन ने कहा —
“यह फैसला संविधान के मूल मंत्र ‘समानता और न्याय’ को फिर से मजबूत करता है। यह उस दिशा में कदम है जहां धर्म और समानता साथ चल सकें।”
सरकारी बोर्डों का रुख सही ठहराया गया
अदालत ने यह भी कहा कि देवस्वोम बोर्ड और भर्ती बोर्ड द्वारा तंत्र विद्यालयों से प्राप्त प्रमाणपत्रों को मान्यता देना पूरी तरह कानूनी और तार्किक निर्णय था। इन संस्थानों में पूजा, संस्कार, वेद, संस्कृत, और तंत्रशास्त्र की औपचारिक शिक्षा दी जाती है। इसलिए जो भी उम्मीदवार इन विद्यालयों से योग्य घोषित होता है, उसे पुजारी पद से वंचित करना अन्याय होगा।
समाज में व्यापक असर की उम्मीद
फैसले के बाद यह बहस एक बार फिर तेज हो गई है कि क्या देश के अन्य मंदिरों में भी जाति आधारित पुजारी परंपरा को समाप्त किया जाना चाहिए।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह निर्णय न केवल धार्मिक संस्थानों में समानता की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह देशभर में “योग्यता आधारित धार्मिक सेवा प्रणाली” की शुरुआत भी कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता इंद्रजीत सिंह ने कहा —
“यह फैसला उन सभी प्रथाओं को चुनौती देता है जो संविधान के मूल मूल्यों के विपरीत हैं। अब धर्म और समानता को एक साथ परिभाषित करने का समय है।”
संविधान की भावना के अनुरूप फैसला
केरल हाई कोर्ट का यह निर्णय न केवल एक कानूनी फैसला है, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान की आत्मा को प्रतिबिंबित करता है। जहां एक ओर यह धार्मिक आस्था का सम्मान करता है, वहीं दूसरी ओर यह स्पष्ट संदेश देता है कि धर्म के नाम पर सामाजिक अन्याय को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
इस फैसले के बाद केरल के कई प्रमुख मंदिरों में खुले चयन की प्रक्रिया अपनाने की उम्मीद जताई जा रही है।
यदि ऐसा होता है, तो यह भारत के धार्मिक सुधार इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ देगा।
केरल हाई कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला बताता है कि भारत की न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या नहीं करती, बल्कि समाज को संवैधानिक दिशा भी दिखाती है।अब मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार जन्म नहीं, बल्कि ज्ञान और योग्यता तय करेंगे।
यह निर्णय न सिर्फ धार्मिक संस्थानों में समानता की जीत है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के उस मूल सिद्धांत की भी पुनर्पुष्टि है —“समान अवसर हर नागरिक का अधिकार है, चाहे वह मंदिर का दरवाजा हो या समाज का।”



