नई दिल्ली, 10 नवंबर (भाषा): सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उस याचिका पर सुनवाई की जिसमें महिला आरक्षण कानून को तुरंत लागू करने की मांग की गई है। अदालत ने इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है।
याचिकाकर्ता का कहना है कि संसद द्वारा पारित ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023’ को लागू करने में सीमा-निर्धारण (Delimitation) और जनगणना जैसी प्रक्रियाओं से जोड़ना महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों के विपरीत है।
यह मामला जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की दो सदस्यीय पीठ के समक्ष आया। अदालत ने कहा कि वह इस विषय पर केंद्र से स्पष्ट समयसीमा और नीति विवरण मांगना चाहती है ताकि यह समझा जा सके कि सरकार कब तक इस कानून को लागू करने की योजना रखती है।
क्या है मामला?
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए याचिका दायर की कि संसद ने 2023 में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण कानून को पारित कर ऐतिहासिक कदम तो उठाया, लेकिन इसे सीमा-निर्धारण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद लागू करने की शर्त के साथ जोड़ा गया।
उनके अनुसार, यह शर्त अपने आप में कानून के मूल उद्देश्य को निष्प्रभावी कर देती है, क्योंकि न तो जनगणना शुरू हुई है और न ही सीमा-निर्धारण आयोग (Delimitation Commission) का गठन किया गया है।
याचिका में कहा गया है कि यदि इन शर्तों का इंतज़ार किया गया तो देश में महिला आरक्षण की वास्तविकता अगले आम चुनाव (2029 या उससे आगे) तक टल सकती है, जो कि महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के वादे के विपरीत होगा।
‘कानून बना तो लागू क्यों नहीं?’ — याचिकाकर्ता का सवाल
याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता ने दलील दी कि एक बार संसद द्वारा कोई कानून पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित हो जाए, तो उसके कार्यान्वयन में अनिश्चित काल तक देरी नहीं की जा सकती।
“सरकार ने 33 प्रतिशत आरक्षण तो दे दिया, लेकिन उसे ऐसी प्रक्रिया से जोड़ दिया है जो न जाने कब शुरू होगी। जनगणना भी अब तक शुरू नहीं हुई और डिलिमिटेशन तो उसी के बाद होगा। आखिर इसका तार्किक आधार क्या है?” — याचिकाकर्ता के वकील ने कहा।
वकील ने आगे कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव निषेध) इस बात की गारंटी देते हैं कि महिलाओं को राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में बराबरी का अवसर मिले।
उन्होंने अदालत से आग्रह किया कि वह सरकार को निर्देश दे कि यह कानून तुरंत प्रभाव से लागू किया जाए।
‘कार्यान्वयन सरकार का क्षेत्राधिकार’: सुप्रीम कोर्ट
सुनवाई के दौरान जस्टिस बी. वी. नागरत्ना ने स्पष्ट किया कि अदालत सरकार के नीति-निर्णय क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती।
“किसी कानून को कब लागू करना है, यह सरकार का अधिकार क्षेत्र है। हम केवल यह जान सकते हैं कि सरकार इसे लागू करने की दिशा में क्या कदम उठा रही है और उसका प्रस्तावित समय-निर्धारण क्या है,” — जस्टिस नागरत्ना ने कहा।
उन्होंने यह भी जोड़ा कि संभव है कि सरकार इसे वैज्ञानिक और अद्यतन जनसांख्यिकीय डेटा के आधार पर लागू करना चाहती हो, ताकि भविष्य में किसी तरह का राजनीतिक विवाद या असमानता न उत्पन्न हो।
केंद्र सरकार को नोटिस, चार हफ्तों में जवाब मांगा
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस मामले पर चार हफ्तों में जवाब दाखिल करने को कहा है। कोर्ट ने कहा कि सरकार को यह बताना होगा कि
- जनगणना प्रक्रिया शुरू करने की क्या समयसीमा है,
- सीमा-निर्धारण कब तक पूरा होने की उम्मीद है,
- और इन प्रक्रियाओं के पूरा होते ही क्या महिला आरक्षण लागू करने की तैयारी है।
अदालत ने यह भी संकेत दिया कि अगली सुनवाई में वह इस बात पर विचार करेगी कि क्या इस कानून के ‘प्रावधानों के कार्यान्वयन’ पर न्यायिक निर्देश देने की आवश्यकता है या नहीं।
महिला आरक्षण कानून: एक नजर में
- नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 को सितंबर 2023 में संसद के दोनों सदनों से पारित किया गया था।
- इस कानून के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की कुल सीटों में 33% आरक्षण महिलाओं के लिए तय किया गया है।
- हालांकि अधिनियम के अनुच्छेद 5 में प्रावधान है कि यह आरक्षण सीमा-निर्धारण प्रक्रिया के पूरा होने के बाद ही लागू होगा।
- चूंकि 2011 के बाद से देश में कोई जनगणना नहीं हुई, इसलिए सीमा-निर्धारण प्रक्रिया भी लंबित है।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस देरी का सीधा असर कानून के कार्यान्वयन पर पड़ेगा और संभव है कि 2029 के आम चुनावों तक इसे लागू नहीं किया जा सके।
राजनीतिक प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट की इस सुनवाई के बाद विपक्षी दलों ने केंद्र पर निशाना साधा है। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने कहा—
“संसद ने कानून पारित कर दिया, लेकिन सरकार इसे लागू करने की नीयत नहीं दिखा रही है। महिला आरक्षण को ‘भविष्य का सपना’ बना दिया गया है।”
वहीं भाजपा ने विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि सरकार पारदर्शी और सटीक जनगणना डेटा के बिना इस कानून को लागू नहीं कर सकती।
भाजपा प्रवक्ता श्वेता शालिनी ने कहा—
“यह सरकार का ईमानदार प्रयास है कि आरक्षण वैज्ञानिक और निष्पक्ष डेटा के आधार पर लागू हो, ताकि किसी क्षेत्र या वर्ग के साथ अन्याय न हो।”
विशेषज्ञों की राय: ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा’
संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ. शैलेंद्र प्रसाद का कहना है कि यह मामला केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा भी है।
“कानून पारित हो चुका है, लेकिन उसका प्रभावी कार्यान्वयन तभी संभव होगा जब राजनीतिक स्तर पर इसे प्राथमिकता दी जाए। यदि हर बार इसे ‘डिलिमिटेशन’ के बहाने टाला जाएगा, तो यह कानून प्रतीकात्मक बनकर रह जाएगा,” — डॉ. प्रसाद ने कहा।
‘महिला भागीदारी’ पर व्यापक प्रभाव
भारत की संसद और विधानसभाओं में फिलहाल महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 15 प्रतिशत के आसपास है। यदि यह कानून लागू होता है, तो यह अनुपात बढ़कर 33 प्रतिशत तक पहुंच सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह न केवल संसद में महिला आवाज़ को मजबूत करेगा, बल्कि नीतिगत प्राथमिकताओं पर भी गहरा असर डालेगा — जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और लैंगिक समानता से जुड़े मुद्दे।
अगली सुनवाई पर नज़रें
सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की अगली सुनवाई दिसंबर के पहले सप्ताह में करेगा। तब तक केंद्र को अपना विस्तृत जवाब दाखिल करना होगा। अदालत के अगले आदेश से यह तय हो सकेगा कि क्या न्यायपालिका सरकार को कार्यान्वयन की निश्चित समयसीमा तय करने के लिए बाध्य कर सकती है या नहीं।
फिलहाल, इस मामले ने एक बार फिर यह बहस तेज़ कर दी है कि महिलाओं को समान प्रतिनिधित्व दिलाने के संवैधानिक वादे को पूरा करने में देश को अभी और कितना इंतज़ार करना होगा।



