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25 साल का हुआ राज्य उत्तराखंड: सपनों की हकीकत से अपनों के बिछड़ने तक क्या पाया, क्या खोया?

देहरादून, 9 नवंबर 2025 (भास्करा नन्द) 9 नवंबर 2000 — उत्तराखंड वासियों के लिए यह सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि एक सपना था जो देवभूमि के हर घर से, हर पहाड़ी से, हर आंगन से, हर माँ के आंसुओं और हर नौजवान के संघर्ष से जुड़ा था। जब हिमालय की गोद में बसे लोगों की वर्षों की पुकार आखिरकार सुनी गई, तब भारत के नक्शे पर उत्तराखंड नाम का एक नया राज्य उभरा — एक ऐसा राज्य जिसे अपने बलिदान, संस्कृति, और संघर्ष पर गर्व था।

आज जब यह राज्य रजत जयंती मना रहा है, 25 बरसों की यात्रा कई सवालों और संवेदनाओं को साथ लेकर आई है। क्या पाया हमने? क्या खोया हमने? यह सवाल सिर्फ आंकड़ों का नहीं, भावनाओं का है — उन उम्मीदों का है जो हर आंदोलनकारी, हर माँ, हर जवान और हर पहाड़ी बच्चे की आँखों में झिलमिलाई थीं।


आंदोलन से आत्मनिर्भरता तक — संघर्ष की विरासत

उत्तराखंड का जन्म दिल्ली के किसी सियासी दफ्तर में नहीं हुआ था, बल्कि खटीमा, मसूरी और रामपुर तिराहा की मिट्टी में सींचे गए खून और आंसुओं से हुआ था।
वह दौर जब आंदोलन की आवाज़ें नारे नहीं, बल्कि जिंदगियों की पुकार थीं — अलग राज्य चाहिए, अपनी पहचान चाहिए। माँ-बेटियों ने भी सड़कें नापीं, खेतों में हल चलाने वालों ने रातों को पोस्टर लिखे, और हजारों युवाओं ने इस सपने के लिए अपनी पढ़ाई और नौकरियाँ छोड़ीं।

आज, 25 साल बाद, जब उत्तराखंड अपने संघर्ष की इस यात्रा को पीछे मुड़कर देखता है, तो उसे यह अहसास होता है कि राज्य तो मिल गया, मगर “राज्य की आत्मा” को जिंदा रखने की लड़ाई अब भी जारी है।


पलायन: वो जख्म जो अब भी हरा है

देवभूमि की सबसे बड़ी त्रासदी — पलायन — आज भी हर गांव की कहानी है। बीस साल पहले जो गांव बच्चों की हंसी से गूंजते थे, आज वहां बंद दरवाज़े, जंग लगे ताले और सूने आंगन हैं।

सरकारी आंकड़े कहते हैं कि पिछले दशक में 1,700 से अधिक गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं, लेकिन जो सबसे दर्दनाक है, वो यह कि हर खाली गांव एक अधूरी कहानी बन गया है।

शहरों में मजदूरी करते पहाड़ी युवक जब अपने गांव लौटते हैं, तो कई बार उन्हें अपने ही घर की पगडंडी पहचाननी मुश्किल होती है। उत्तराखंड की सबसे बड़ी पूंजी — उसका मानव संसाधन — धीरे-धीरे मैदानों में बिखर रहा है।


भूमाफिया और बेनाम सौदे: मिट्टी बिकती रही, जड़ें सूखती रहीं

जिस मिट्टी के लिए आंदोलन हुआ, वही मिट्टी अब माफियाओं के कब्जे में आ रही है। बीते वर्षों में भूमि अधिग्रहण और नकली रजिस्ट्री के हजारों मामले सामने आए। भूमाफिया सिर्फ जमीन नहीं खरीदते — वे पहाड़ का भविष्य खरीद लेते हैं। गांवों में खेती घट रही है, जबकि रिसॉर्ट्स और फार्म हाउस बढ़ रहे हैं।

वो खेत, जिनमें कभी धान की खुशबू और गढ़वाली गीत गूंजते थे, अब रियल एस्टेट के बोर्डों से ढक गए हैं।
यह पहाड़ की सबसे खामोश पीड़ा है — एक ऐसा सौदा जिसमें धरती भी हारी, और पहचान भी।


स्वास्थ्य और शिक्षा: उम्मीदों का अधूरा सपना

राज्य बनने के बाद उम्मीद थी कि पहाड़ों में अस्पतालों और स्कूलों की घंटियां बजेंगी। लेकिन आज भी सच्चाई यह है कि गर्भवती महिलाओं को सड़क न होने के कारण कंधों पर उठाकर अस्पताल ले जाया जाता है, और कई बच्चे स्कूल की कमी के कारण मैदानों में पढ़ाई करने को मजबूर हैं।

स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर नहीं, शिक्षा संस्थानों में अध्यापक नहीं — यही “विकास का पैमाना” बन गया है। देवभूमि आज भी अपने बच्चों को अच्छी ज़िंदगी देने के लिए मैदानों की ओर धकेल रही है।


बेरोजगारी और माफिया तंत्र: युवा ऊर्जा की हारी हुई बाज़ी

उत्तराखंड की सबसे बड़ी ताकत — उसका युवा — आज सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है। सैकड़ों डिग्रियाँ, हजारों आवेदन, और फिर भी सरकारी नौकरियों की कमी ने युवाओं को निराश किया है।
इसी शून्य में पनप रहे हैं पेपर लीक, भर्ती घोटाले और दलाल संस्कृति — जिसने उत्तराखंड के उजले चेहरों पर निराशा की रेखाएँ खींच दी हैं। पहाड़ का युवा मेहनती है, काबिल है, लेकिन सिस्टम ने उसके सपनों की फाइलें फाइलों में ही बंद कर दी हैं।


प्राकृतिक आपदाएँ: जब धरती ही रो पड़ी

उत्तराखंड का भूगोल जितना सुंदर है, उतना ही संवेदनशील भी। 2013 की केदारनाथ त्रासदी, 2021 का चमोली ग्लेशियर हादसा, या जोशीमठ का धंसता शहर — ये सब केवल आपदाएँ नहीं, बल्कि चेतावनियाँ हैं। हमने विकास के नाम पर पहाड़ की छाती में सुरंगें खोद दीं, नदियों को रोका, जंगलों को काटा — और अब पहाड़ जवाब दे रहा है। प्रकृति कह रही है — मुझे मत आज़माओ।” लेकिन अफसोस, हमने अब तक उससे सीखा नहीं।


फिर भी उम्मीद जिंदा है

फिर भी, यह धरती हार नहीं मानती। आज भी कोई माँ अपने बेटे को सेना में भेजती है तो गर्व से कहती है — “मेरा बेटा देश की सेवा करेगा।” आज भी कोई बुजुर्ग अपने खाली गांव में दीप जलाता है, इस उम्मीद से कि “कभी कोई लौटेगा।” आज भी कोई युवा स्टार्टअप शुरू करता है, ताकि अपने गांव में रोजगार पैदा कर सके। यही उम्मीद, यही भावना — उत्तराखंड की असली ताकत है।


रजत जयंती का संदेश: अपनी जड़ों से जुड़ो

25 वर्ष बाद जब उत्तराखंड आईने में खुद को देखता है, तो वह सिर्फ पहाड़ नहीं देखता — वह संघर्ष, विश्वास और भविष्य देखता है। हमारे आंदोलनकारी शहीदों ने हमें राज्य दिया, अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम उसे पहचान दें।

क्योंकि अगर पहाड़ का बेटा अपनी मिट्टी छोड़ देगा, तो सिर्फ एक घर नहीं, एक सभ्यता खो जाएगी।
रजत जयंती के इस अवसर पर, शायद यही सबसे बड़ा संकल्प होना चाहिए —“हम लौटेंगे अपनी जड़ों की ओर, ताकि अगली पीढ़ी को ये पहाड़ सिर्फ कहानी नहीं, घर बनकर मिलें।”

 

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