
नयी दिल्ली (भाषा): दिल्ली उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को दो न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक जांच (Administrative Inquiry) का आदेश दिया है। इन अधिकारियों पर आरोप है कि उन्होंने एक महिला वकील को दबाव डालकर उस बलात्कार मामले के आरोप वापस लेने को कहा था, जो उसने एक अन्य वकील के खिलाफ दर्ज कराया था।
यह मामला अब न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में नैतिक मानकों और न्यायिक आचरण की गंभीरता पर सवाल उठाता हुआ एक संवेदनशील मोड़ पर पहुंच गया है।
मामले की पृष्ठभूमि
सूत्रों के अनुसार, शिकायतकर्ता महिला वकील ने अदालत को बताया कि वह लंबे समय से आरोपी वकील के संपर्क में थी और एक दिन उसने उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए, जिसके बाद उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई।
मामला दर्ज होने के बाद, पीड़िता ने आरोप लगाया कि उसे दो न्यायिक अधिकारियों ने बुलाकर समझाने का प्रयास किया कि वह “मामला शांतिपूर्ण तरीके से सुलझा ले” और औपचारिक रूप से एफआईआर वापस ले ले।
महिला ने आरोप लगाया कि इन अधिकारियों ने न केवल उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया, बल्कि यह भी संकेत दिया कि अगर उसने शिकायत जारी रखी तो उसके पेशेवर जीवन में दिक्कतें आ सकती हैं।
उच्च न्यायालय का निर्णय
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन गंभीर आरोपों को देखते हुए कहा कि “न्यायिक पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति के लिए ऐसे व्यवहार की कोई गुंजाइश नहीं है।”
न्यायमूर्ति स्वर्ण कंता शर्मा की पीठ ने कहा,
“यदि किसी न्यायिक अधिकारी पर यह आरोप है कि उसने किसी मामले में हस्तक्षेप करने या किसी पक्षकार को दबाव में लेने की कोशिश की है, तो यह न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सीधा प्रहार है।”
पीठ ने कहा कि प्रारंभिक जानकारी के आधार पर दोनों न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ प्रशासनिक जांच शुरू की जाएगी, ताकि आरोपों की सच्चाई की निष्पक्ष जांच हो सके।
अग्रिम जमानत रद्द
अदालत ने साथ ही 51 वर्षीय आरोपी वकील की अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) रद्द कर दी।
पीठ ने कहा कि जमानत रद्द करने का एक प्रमुख कारण यह है कि आरोपी ने न केवल कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया, बल्कि पीड़िता को अपने बयान से पीछे हटाने की कोशिश भी की।
अदालत ने कहा,
“जब किसी आरोपी पर यह पाया जाता है कि उसने न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने का प्रयास किया है, तो यह न्याय के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। ऐसी स्थिति में जमानत जारी रखना न्याय के हित में नहीं होगा।”
‘न्यायपालिका की साख सर्वोपरि’
दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायपालिका की साख और उसकी नैतिकता किसी भी व्यक्तिगत या संस्थागत हित से ऊपर है।
पीठ ने कहा,
“न्यायिक अधिकारी को न्याय की प्रतिष्ठा के रक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए, न कि किसी पक्ष विशेष को लाभ पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए। अगर इस तरह के आरोप साबित होते हैं, तो यह न केवल न्यायपालिका बल्कि पूरे समाज के विश्वास को हिलाकर रख देंगे।”
अदालत ने इस मामले की रिपोर्ट को दिल्ली उच्च न्यायालय के प्रशासनिक विभाग को सौंपने का आदेश दिया, ताकि उपयुक्त जांच समिति गठित की जा सके।
जांच कैसे होगी?
जानकारी के अनुसार, यह जांच दिल्ली उच्च न्यायालय की आंतरिक निगरानी समिति (Vigilance Committee) के अधीन होगी।
समिति के पास यह अधिकार होगा कि वह आरोपी न्यायिक अधिकारियों के बयान दर्ज करे, सभी दस्तावेजों की समीक्षा करे और यदि आवश्यक हो तो पीड़िता व अन्य संबंधित वकीलों के बयान भी दर्ज करे।
जांच पूरी होने के बाद समिति अपनी रिपोर्ट मुख्य न्यायाधीश को सौंपेगी। इसके आधार पर दोनों अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई या निलंबन जैसे कदम उठाए जा सकते हैं।
कानूनी विशेषज्ञों की राय
वरिष्ठ अधिवक्ता अमिता सक्सेना ने कहा,
“यह पहली बार नहीं है जब किसी न्यायिक अधिकारी पर इस तरह के दबाव डालने के आरोप लगे हों, लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कदम स्वागत योग्य है। अगर न्यायपालिका खुद अपने घर की सफाई करती है, तो यही उसकी विश्वसनीयता की सबसे बड़ी गारंटी है।”
दूसरी ओर, वरिष्ठ वकील मोहित माथुर ने कहा कि यह मामला न केवल प्रशासनिक स्तर पर बल्कि संविधानिक मर्यादा के स्तर पर भी गंभीर है।
“न्यायपालिका को न सिर्फ निष्पक्ष होना चाहिए, बल्कि ऐसा दिखाई भी देना चाहिए। अगर न्यायिक अधिकारी ही किसी मुकदमे के नतीजे पर असर डालने की कोशिश करें, तो यह न्याय के बुनियादी ढांचे के लिए खतरा है।”
महिला वकील का बयान
पीड़िता ने अदालत में दायर अपने हलफनामे में कहा कि उसे बार-बार “समझाने” के नाम पर बुलाया गया।
“मुझे बार-बार कहा गया कि आरोपी भी वकील है और पेशे की इज़्ज़त बनाए रखनी चाहिए। मुझसे कहा गया कि अगर मैंने केस जारी रखा तो मुझे बार काउंसिल में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।”
उसने कहा कि यह सब सुनने के बाद उसे लगा कि उसके साथ न्याय की बजाय, समझौते की भाषा बोली जा रही है।
संवेदनशील मामलों में न्यायिक संवेदना की आवश्यकता
अदालत ने अपने आदेश में यह भी उल्लेख किया कि यौन अपराधों के मामलों में किसी भी तरह का बाहरी या आंतरिक दबाव न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
पीठ ने कहा,
“ऐसे मामलों में न्यायिक संवेदना और पीड़िता की गरिमा सर्वोपरि है। अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी महिला अपने बयान से पीछे हटने के लिए विवश न हो।”
दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कदम इस बात की याद दिलाता है कि न्यायपालिका की जिम्मेदारी सिर्फ फैसले सुनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि न्याय प्रक्रिया निष्पक्ष, पारदर्शी और भयमुक्त हो।
अगर जांच में आरोप साबित होते हैं, तो यह मामला देश की न्यायिक प्रणाली के लिए एक आत्मसमीक्षा का अवसर साबित हो सकता है — कि क्या हर स्तर पर न्याय की रक्षा हो रही है, या कहीं कुछ दरारें हैं जिन्हें भरना ज़रूरी है।



