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शुभांशु शुक्ला ने साझा किया अंतरिक्ष यात्रा का अनुभव — “नमूने लेने के लिए तीन घंटे तक अपने ही चारों ओर घूमता रहा”

आईएसएस में बिताए 18 दिन — सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में भारतीय वैज्ञानिक का ‘प्रयोग और अनुभव’

नयी दिल्ली, 5 नवंबर (भाषा): भारतीय अंतरिक्ष यात्री शुभांशु शुक्ला ने मंगलवार को बताया कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर अपने 18 दिन के प्रवास के दौरान सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण (Microgravity) के वातावरण में वैज्ञानिक प्रयोगों को अंजाम देना एक अत्यंत जटिल और धैर्यपूर्ण कार्य था।

उन्होंने कहा कि एक प्रयोग के दौरान उन्हें तीन घंटे तक अपने ही चारों ओर घूमना पड़ा, ताकि वह नमूने एकत्र कर सकें और पृथ्वी पर विश्लेषण के लिए भेज सकें।

शुक्ला ने यह अनुभव सशक्त विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार सम्मेलन (ESTIC) में साझा किया। उन्होंने अंतरिक्ष मिशन के दौरान लिफ्ट-ऑफ (उड़ान भरने), कक्षा में प्रवेश, स्प्लैशडाउन (वापसी), और शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति के दौरान महसूस किए गए शारीरिक व मानसिक अनुभवों के बारे में विस्तार से बताया।


तीन घंटे की जटिल प्रक्रिया — जब खुद के चारों ओर घूमते रहे शुक्ला

शुभांशु शुक्ला ने अपने संबोधन में बताया कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों के दौरान सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव इतना गहरा था कि सबसे सरल कार्य भी अत्यंत कठिन हो जाता है।
उन्होंने कहा —

“एक प्रयोग में मुझे नमूनों को एकत्र करने के लिए करीब तीन घंटे तक अपने ही चारों ओर घूमना पड़ा। वहां ऊपर दिशा का कोई अर्थ नहीं होता — ऊपर या नीचे जैसा कुछ नहीं होता। आपको अपने शरीर की स्थिति का अंदाजा लगाने के लिए लगातार ध्यान केंद्रित रखना पड़ता है।”

उन्होंने बताया कि आईएसएस में किए गए प्रयोगों का मुख्य उद्देश्य था यह समझना कि गुरुत्वाकर्षण की अनुपस्थिति में जैविक और रासायनिक प्रक्रियाएँ किस प्रकार प्रभावित होती हैं
उनके अनुसार, इन प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्ष न केवल अंतरिक्ष विज्ञान के लिए, बल्कि पृथ्वी पर चिकित्सा और सामग्री विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण योगदान देंगे।


“लिफ्ट-ऑफ” का क्षण — शरीर पर पड़ा जी-फोर्स का दबाव

शुक्ला ने सम्मेलन में कहा कि जब रॉकेट ने उड़ान भरी, तो ‘जी-फोर्स’ (G-Force) का दबाव शरीर पर तीव्रता से महसूस हुआ।

“लिफ्ट-ऑफ के दौरान ऐसा लगा जैसे पूरा शरीर सीट में धंस रहा हो। कुछ ही सेकंडों में हमारी गति हजारों किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुंच गई। लेकिन जैसे ही पृथ्वी की पकड़ ढीली हुई, एक अद्भुत हल्कापन महसूस हुआ — जैसे शरीर भारहीन हो गया हो।”

उन्होंने बताया कि पृथ्वी की कक्षा में पहुंचने के बाद उनका पहला अनुभव था — “अंतरिक्ष की शांति और अंधकार।”
उन्होंने कहा कि वहां से पृथ्वी को देखने का अनुभव किसी भी शब्द में बयान नहीं किया जा सकता —

“जब मैंने पहली बार पृथ्वी को देखा, तो लगा कि हम सब एक ही नीले-सफेद घर के हिस्से हैं, सीमाएं वहां नजर नहीं आतीं, केवल मानवता दिखती है।”


शून्य गुरुत्वाकर्षण में जीवन — हर कदम में चुनौती

शुक्ला ने हंसते हुए कहा कि अंतरिक्ष में रहना जितना रोमांचक है, उतना ही अनुशासित भी।
आईएसएस पर हर चीज़ “तैरती” रहती है — चाहे वह पानी की बूंद हो, उपकरण हो या स्वयं अंतरिक्ष यात्री।
उन्होंने कहा कि

“ब्रश करना, खाना, सोना — सब कुछ एक विज्ञान है। अगर आप पानी पीना भूल जाएं तो वो बूँदें इधर-उधर तैरने लगती हैं। हर काम में ध्यान, संतुलन और धैर्य आवश्यक है।”

उन्होंने बताया कि अंतरिक्ष में दिन और रात का चक्र मात्र 90 मिनट का होता है। यानी हर डेढ़ घंटे में एक सूर्योदय और सूर्यास्त दिखाई देता है।

“इससे शरीर की जैविक घड़ी प्रभावित होती है। इसलिए हमें सोने-जागने का अनुशासन बनाए रखने के लिए विशेष टाइमटेबल और प्रकाश व्यवस्था का पालन करना पड़ता है।”


वापसी का सफर और ‘स्प्लैशडाउन’ का अनुभव

शुक्ला ने बताया कि मिशन पूरा होने के बाद जब वापसी का समय आया, तो कैप्सूल का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश एक अत्यधिक ऊर्जा और तापमान वाला क्षण था।

“हमारी स्पेसक्राफ्ट की बाहरी सतह का तापमान हजारों डिग्री तक पहुंच गया। फिर धीरे-धीरे पैराशूट खुलने लगे और समुद्र में ‘स्प्लैशडाउन’ हुआ। यह राहत और भावनाओं का मिश्रण था।”

उन्होंने कहा कि अंतरिक्ष यात्रा से लौटने के बाद पृथ्वी पर फिर से चलना, सांस लेना और सामान्य गुरुत्व में जीवन को अपनाना शुरू में कठिन था।

“कई दिनों तक ऐसा लगता रहा जैसे जमीन हिल रही हो। शरीर को फिर से गुरुत्व का आदी होने में समय लगा।”


अंतरिक्ष में भारतीय पहचान — “हम वहां भी त्रिवर्ण में बंधे थे”

शुभांशु शुक्ला ने बताया कि अंतरिक्ष में रहने के दौरान भी उन्होंने भारतीय संस्कृति और भावनाओं को संजोकर रखा।
उन्होंने कहा —

“हमारी टीम में भले ही अलग-अलग देशों के वैज्ञानिक थे, लेकिन जब हम सबने भारतीय तिरंगे का छोटा झंडा स्टेशन की दीवार पर लगाया, तो वह क्षण गर्व से भर देने वाला था।”

उन्होंने कहा कि अंतरिक्ष में भी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की अनुशासन, सरलता और दक्षता का प्रभाव दिखाई देता है।

“हम भारतीय वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी ताकत है — धैर्य, संसाधन-संयम और नवाचार की भावना। यही हमें विशिष्ट बनाती है।”


भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की नई दिशा

ईएसटीआईसी सम्मेलन के दौरान शुक्ला ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की तेज़ प्रगति पर भी प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि गगनयान मिशन और मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम ने भारत को उन चुनिंदा देशों की श्रेणी में ला दिया है जो अपने अंतरिक्ष यात्रियों को स्वतंत्र रूप से अंतरिक्ष भेजने में सक्षम हैं।

“यह केवल तकनीकी सफलता नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत का प्रतीक है। यह दिखाता है कि भारतीय वैज्ञानिक समुदाय वैश्विक स्तर पर किसी से कम नहीं है,”
उन्होंने कहा।


विज्ञान, अनुशासन और मानवीय भावनाओं का संगम

शुभांशु शुक्ला ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि अंतरिक्ष यात्रा केवल विज्ञान नहीं, बल्कि आत्म-अनुशासन, टीम भावना और मानवीय संवेदनाओं की परीक्षा भी है।
उन्होंने कहा कि

“वहां ऊपर आप महसूस करते हैं कि इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसका सहयोग और जिज्ञासा है। हम एक छोटे ग्रह के यात्री हैं — लेकिन हमारी सोच, हमारी खोज, हमें ब्रह्मांड से जोड़ती है।”


निष्कर्ष — अंतरिक्ष से मिली ‘मानवता’ की नई परिभाषा

अंत में शुक्ला ने कहा कि अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखने के बाद एक बात स्पष्ट हो जाती है —

“हम सब सीमाओं से परे हैं। हमारे मतभेद, हमारे विवाद — सब इस नीले ग्रह की विशालता के आगे छोटे हैं। अंतरिक्ष हमें यह सिखाता है कि विज्ञान और मानवता दोनों का लक्ष्य एक ही है — ज्ञान और शांति।”

उनका यह अनुभव न केवल विज्ञान की नई सीमाओं को समझने का अवसर है, बल्कि यह भी दिखाता है कि भारतीय वैज्ञानिक अब अंतरिक्ष के सबसे चुनौतीपूर्ण अध्यायों में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ रहे हैं।

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