
- नई दिल्ली / कोलकाता: भारत के नौ राज्यों में मतदाता सूची के स्पेशल इंटेंसिव रिविजन (SIR) की घोषणा के साथ ही पश्चिम बंगाल की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है।
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने सोमवार को बताया कि जिन राज्यों में आगामी महीनों में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं, वहाँ मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया जल्द शुरू होगी। इस सूची में पश्चिम बंगाल के साथ-साथ असम, केरल और तमिलनाडु भी शामिल हैं — जहाँ वर्ष 2026 में चुनाव होने हैं।
लेकिन जैसे ही SIR की घोषणा हुई, बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे “राजनीतिक रूप से प्रेरित” कदम बताते हुए चुनाव आयोग पर निशाना साधा। उन्होंने आरोप लगाया कि इस प्रक्रिया के बहाने केंद्र सरकार “राज्य में NRC लागू करने की दिशा में कदम बढ़ा रही है।” वहीं विपक्षी भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने दावा किया कि SIR से “करीब एक करोड़ नाम मतदाता सूची से हट सकते हैं,” जिससे राज्य की राजनीतिक तस्वीर ही बदल सकती है।
क्या है SIR और क्यों बढ़ा विवाद?
चुनाव आयोग हर वर्ष मतदाता सूची का पुनरीक्षण करवाता है, लेकिन “स्पेशल इंटेंसिव रिविजन” यानी SIR तब कराई जाती है जब आयोग को किसी राज्य में मतदाता सूची में अनियमितता, दोहराव, या नए मतदाताओं के पंजीकरण में गड़बड़ी के संकेत मिलते हैं।
इस बार आयोग ने नौ राज्यों में यह प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय लिया है ताकि 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले मतदाता सूची पूरी तरह अद्यतन हो सके।
लेकिन पश्चिम बंगाल में यह महज तकनीकी प्रक्रिया न रहकर राजनीतिक बहस का केंद्र बन गई है।
राज्य सरकार का तर्क है कि “केंद्र की सरकार और आयोग, SIR के नाम पर NRC जैसी कवायद की भूमिका तैयार कर रहे हैं।” ममता बनर्जी का कहना है,
“हम बंगाल में NRC नहीं होने देंगे। मतदाता सूची में छेड़छाड़ करके लोगों के नाम काटने की साजिश हो रही है। यह लोकतंत्र के खिलाफ है।”
उनके इस बयान ने एक बार फिर बंगाल की राजनीति में “नागरिकता” और “पहचान” के सवालों को केंद्र में ला दिया है।
चुनाव आयोग की कड़ी प्रतिक्रिया
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग किसी भी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं, बल्कि संवैधानिक दायित्वों के तहत यह प्रक्रिया करवा रहा है।
उन्होंने कहा कि हर राज्य सरकार को संविधान के अनुच्छेद 324(6) के तहत आयोग को आवश्यक सहयोग देना होता है।
“हर संवैधानिक संस्था को अपना दायित्व निभाना होता है। मतदाता सूची के अद्यतन से लेकर मतदान प्रक्रिया तक, राज्य सरकारों को आवश्यक कर्मचारियों और संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होती है,”
ज्ञानेश कुमार ने कहा।
आयोग ने यह भी साफ़ किया कि SIR किसी एक राज्य को निशाना बनाकर नहीं कराई जा रही है, बल्कि यह राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी पारदर्शिता बढ़ाने का कदम है।
राजनीतिक रंग और प्रशासकीय हलचल
दिलचस्प बात यह है कि SIR के दूसरे चरण की घोषणा से ठीक पहले, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य के दस जिलों के जिलाधिकारियों (DMs) का तबादला कर दिया।
तबादले की सूची में उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, कूचबिहार, मुर्शिदाबाद, पुरुलिया, दार्जिलिंग, मालदा, बीरभूम, झारग्राम और पूर्व मेदिनीपुर जैसे अहम जिले शामिल हैं — ये सभी जिले चुनावी दृष्टि से रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह कदम “आगामी SIR प्रक्रिया पर नियंत्रण और निगरानी की रणनीति” का हिस्सा हो सकता है।
विपक्षी दलों ने इस कदम की आलोचना करते हुए कहा कि “ममता सरकार प्रशासनिक अधिकारियों को चुनाव आयोग के काम में बाधा डालने के लिए इस्तेमाल कर रही है।”
भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने कहा,
“ममता बनर्जी को डर है कि SIR के ज़रिए असली मतदाताओं की पहचान उजागर हो जाएगी। करोड़ों फर्जी वोटर लिस्ट से हट जाएंगे, इसलिए वो चुनाव आयोग से टकराव की राजनीति कर रही हैं।”
NRC और बंगाल की राजनीति
SIR विवाद ने एक बार फिर NRC (National Register of Citizens) के मुद्दे को बंगाल की राजनीति के केंद्र में ला दिया है।
असम में NRC के अनुभव के बाद, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस लगातार इस मुद्दे को “भय” और “ध्रुवीकरण” से जोड़कर पेश करती रही है।
2019 के लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक, ममता बनर्जी बार-बार यह कह चुकी हैं कि “बंगाल में किसी भी हालत में NRC लागू नहीं होने देंगे।”
राज्य में करीब 8 करोड़ 30 लाख मतदाता हैं। अगर सुवेंदु अधिकारी के एक करोड़ नाम हटाने वाले दावे में ज़रा भी सच्चाई है, तो यह बंगाल की चुनावी गणित में भारी फेरबदल ला सकता है।
हालांकि, चुनाव आयोग ने इस तरह के किसी बड़े पैमाने पर नाम काटने या जोड़ने की संभावना से इनकार किया है।
कानून-व्यवस्था और प्रशासनिक सहयोग पर आयोग का रुख
चुनाव आयोग ने अपने बयान में यह भी स्पष्ट किया कि मतदाता सूची पुनरीक्षण या मतदान के दौरान कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही होगी।
ज्ञानेश कुमार ने कहा,
“हमें भरोसा है कि सभी राज्य सरकारें, बंगाल सहित, इस संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करेंगी, जैसा कि उन्होंने पहले भी किया है।”
उन्होंने यह भी संकेत दिया कि अगर किसी राज्य सरकार ने सहयोग से इंकार किया तो आयोग के पास “केंद्रीय बलों की मदद से भी प्रक्रिया पूरी कराने के प्रावधान” मौजूद हैं।
विश्लेषण: बंगाल में मतदाता सूची की जंग
पश्चिम बंगाल में SIR को लेकर जारी घमासान महज प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है।
तृणमूल कांग्रेस इसे “लोकतंत्र बचाने की लड़ाई” के रूप में पेश कर रही है, तो भाजपा इसे “फर्जी मतदाताओं के खिलाफ सफाई अभियान” बता रही है।
दोनों पक्षों के बीच यह संघर्ष, अगले वर्ष शुरू होने वाले चुनावी मौसम में और तीखा हो सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि SIR के दौरान नाम काटने और जोड़ने की प्रक्रिया अगर पारदर्शी ढंग से नहीं हुई, तो यह चुनावी भरोसे पर असर डाल सकती है।
हालांकि आयोग का कहना है कि हर मतदाता को अपने नाम की पुष्टि, सुधार और आपत्ति दर्ज कराने का पूरा मौका दिया जाएगा।
आगे की राह
SIR की प्रक्रिया नवंबर से शुरू होने की संभावना है और यह जनवरी 2026 तक पूरी की जाएगी। इसके बाद संशोधित मतदाता सूची प्रकाशित की जाएगी, जो विधानसभा चुनावों के लिए आधार बनेगी।
फिलहाल, पश्चिम बंगाल में SIR ने न केवल प्रशासनिक हलचल बढ़ा दी है, बल्कि यह राज्य की राजनीति को भी नए टकराव की दिशा में धकेल चुका है। अब सबकी निगाहें इस बात पर हैं कि ममता बनर्जी सरकार और चुनाव आयोग के बीच यह tug of war किस हद तक जाता है — और क्या मतदाता सूची का यह “स्पेशल रिविजन” बंगाल की सियासत में कोई “स्पेशल मोड़” लेकर आएगा?



