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चीन के “मेगा बांध” प्रोजेक्ट के जवाब में भारत का ब्रह्मपुत्र पर 6.42 लाख करोड़ का ‘हाइड्रो मास्टरप्लान’

नई दिल्ली: भारत ने चीन की ओर से तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी (यारलुंग त्सांगपो) पर बनाए जा रहे विशाल “मेगा डैम प्रोजेक्ट” का रणनीतिक जवाब तैयार कर लिया है।

केंद्रीय विद्युत् प्राधिकरण (CEA) ने सोमवार को एक महत्वाकांक्षी ₹6,42,944 करोड़ (US$ 72.52 बिलियन) की ट्रांसमिशन योजना पेश की है, जिसके तहत ब्रह्मपुत्र बेसिन में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं से देशभर में बिजली पहुंचाने की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई है।

यह योजना न केवल भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिहाज से अहम है, बल्कि इसे चीन की जल-राजनीति (water diplomacy) के मुकाबले एक दीर्घकालिक “रणनीतिक जल उत्तर” के रूप में भी देखा जा रहा है।


🔹 ब्रह्मपुत्र पर चीन की गतिविधियाँ और भारत की चिंता

ब्रह्मपुत्र नदी, जो तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो के नाम से जानी जाती है, भारत में अरुणाचल प्रदेश होते हुए असम और फिर बांग्लादेश में प्रवेश करती है।
चीन ने हाल के वर्षों में इस नदी पर कई बड़े बांधों के निर्माण की घोषणा की है, जिनमें से एक तिब्बत के मेडोग क्षेत्र में प्रस्तावित “मेगा हाइड्रो प्रोजेक्ट” दुनिया के सबसे बड़े बांधों में से एक माना जा रहा है।

विशेषज्ञों के मुताबिक, चीन का यह कदम न केवल ऊर्जा उत्पादन बल्कि नदी के प्रवाह और जल नियंत्रण पर उसकी पकड़ को मजबूत करने का प्रयास है।
भारत की चिंता यह है कि ऐसे बांधों से नदी के प्राकृतिक प्रवाह में बदलाव आ सकता है, जिससे पूर्वोत्तर राज्यों के पारिस्थितिक तंत्र, कृषि और जल आपूर्ति पर प्रभाव पड़ सकता है।

इसी पृष्ठभूमि में भारत ने यह हाइड्रो मास्टरप्लान तैयार किया है — ताकि ब्रह्मपुत्र के जल संसाधनों का समुचित उपयोग करते हुए क्षेत्रीय ऊर्जा व सामरिक संतुलन कायम रखा जा सके।


🔹 CEA की योजना — “एक राष्ट्र, एक जलविद्युत ग्रिड” की दिशा में कदम

केंद्रीय विद्युत् प्राधिकरण द्वारा तैयार की गई इस योजना का उद्देश्य है —

“ब्रह्मपुत्र बेसिन से उत्पन्न 76.07 गीगावॉट (GW) जलविद्युत क्षमता को देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचाना।”

इस ट्रांसमिशन प्लान के तहत:

  • अरुणाचल प्रदेश, असम, सिक्किम और मेघालय में प्रस्तावित 80 से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं को जोड़ा जाएगा।
  • नई अल्ट्रा हाई-वोल्टेज ट्रांसमिशन लाइनों के ज़रिए पूर्वोत्तर की बिजली को देश के पश्चिमी, दक्षिणी और उत्तरी हिस्सों तक पहुंचाया जाएगा।
  • योजना में ग्रीन एनर्जी कॉरिडोर का भी समावेश होगा, जिससे हाइड्रो और सोलर दोनों स्रोतों से उत्पन्न बिजली को एकीकृत तरीके से राष्ट्रीय ग्रिड में जोड़ा जा सके।

CEA के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा —

“यह परियोजना न केवल ऊर्जा आपूर्ति को स्थिर बनाएगी, बल्कि पूर्वोत्तर को भारत की ‘ग्रीन पावर हब’ के रूप में विकसित करेगी।”


ब्रह्मपुत्र बेसिन का भू-भौगोलिक महत्व

ब्रह्मपुत्र उप-बेसिन लगभग 5.8 लाख वर्ग किलोमीटर (580,000 sq km) क्षेत्र में फैला है, जो तिब्बत (चीन), भूटान, भारत और बांग्लादेश के हिस्सों को जोड़ता है।
भारत में इसका अपवाह क्षेत्र 1,94,413 वर्ग किलोमीटर है — जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 5.9% हिस्सा है।

इस क्षेत्र की नदियाँ बर्फ, ग्लेशियर और मानसूनी वर्षा से पोषित होती हैं, जिससे यहां विशाल जलविद्युत क्षमता निहित है। CEA के अनुमान के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश अकेले में 50,000 मेगावॉट से अधिक की क्षमता रखता है, जो पूरे देश की हाइड्रो क्षमता का लगभग एक-तिहाई है।


रणनीतिक दृष्टि: चीन के डैम प्रोजेक्ट्स के जवाब में ऊर्जा आत्मनिर्भरता

चीन की तिब्बती परियोजनाओं को अक्सर “हाइड्रो जियोपॉलिटिक्स” के रूप में देखा जाता है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि चीन नदी पर एकतरफा निर्माण करता है, तो डाउनस्ट्रीम देशों — खासकर भारत और बांग्लादेश — को जल प्रवाह में कमी या अचानक बाढ़ जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।

भारत का यह नया हाइड्रो मास्टरप्लान ‘रिएक्टिव नहीं, प्रैक्टिव’ रणनीति को दर्शाता है। इसके ज़रिए भारत न केवल अपने हिस्से के जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग करेगा बल्कि ऊर्जा के भू-राजनीतिक दबावों से स्वतंत्रता हासिल करेगा।

पूर्वोत्तर भारत में परियोजनाओं के तेज़ी से लागू होने पर

  • स्थानीय स्तर पर रोज़गार और बुनियादी ढांचे का विस्तार,
  • क्षेत्रीय ऊर्जा निर्यात हब के रूप में पहचान,
  • और भारत की ऊर्जा आत्मनिर्भरता (Energy Independence 2047) की दिशा में ठोस कदम साबित हो सकता है।

पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियाँ

हालाँकि, इतनी बड़ी योजना के साथ कई पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताएँ भी जुड़ी हैं। विशेषज्ञों ने चेताया है कि हिमालयी क्षेत्र में अत्यधिक निर्माण गतिविधियाँ
भू-स्खलन, जैव विविधता हानि और भूकंपीय जोखिम बढ़ा सकती हैं।

CEA ने स्पष्ट किया है कि हर परियोजना के लिए पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA) अनिवार्य होगा और
स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी।
साथ ही, ट्रांसमिशन नेटवर्क को “क्लाइमेट-रेज़िलिएंट डिज़ाइन” में तैयार किया जाएगा, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान बिजली आपूर्ति बाधित न हो।


अंतरराष्ट्रीय प्रभाव और सहयोग की संभावना

भारत का यह कदम बांग्लादेश और भूटान जैसे पड़ोसी देशों के लिए भी अवसर लेकर आ सकता है।
भूटान पहले से भारत को जलविद्युत निर्यात करता है,
और NHIS योजना के साथ संयुक्त ग्रिड से क्षेत्रीय बिजली व्यापार (Regional Power Trade) की नई संभावनाएँ खुलेंगी।

बांग्लादेश ने पहले ही भारत से बिजली आयात करने में रुचि दिखाई है। यदि ब्रह्मपुत्र बेसिन को साझा ऊर्जा स्रोत के रूप में विकसित किया जाता है, तो यह दक्षिण एशिया में ऊर्जा सहयोग (Energy Cooperation) का नया अध्याय खोलेगा।


वित्तीय और तकनीकी रोडमैप

₹6.42 लाख करोड़ की इस योजना को तीन चरणों में लागू करने का प्रस्ताव है —

  1. पहला चरण (2026–2030): पूर्वोत्तर के प्रमुख जलविद्युत संयंत्रों को राष्ट्रीय ग्रिड से जोड़ना।
  2. दूसरा चरण (2030–2035): इंटर-रीजनल ट्रांसमिशन कॉरिडोर और ग्रीन एनर्जी कनेक्टिविटी।
  3. तीसरा चरण (2035–2040): अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा व्यापार नेटवर्क और स्मार्ट ग्रिड तकनीक का समावेश।

परियोजना के लिए वित्तीय सहायता केंद्र सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे एशियाई विकास बैंक, विश्व बैंक) से प्राप्त की जाएगी।


जल से शक्ति तक भारत का भविष्य

भारत का यह “हाइड्रो मास्टरप्लान” केवल बिजली उत्पादन की रणनीति नहीं है, बल्कि यह भारत की भू-राजनीतिक स्थिति को सशक्त करने वाला जल-नीति दस्तावेज़ है।

ब्रह्मपुत्र के जल को ऊर्जा में बदलना, पूर्वोत्तर को शक्ति केंद्र बनाना, और चीन की एकतरफा नीतियों का संतुलित जवाब देना —इन तीनों उद्देश्यों को यह योजना एक साथ साधने की क्षमता रखती है।

अगले दो दशकों में यह परियोजना भारत को ऊर्जा निर्यातक देश बनाने की दिशा में निर्णायक कदम साबित हो सकती है।

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