
अल्मोड़ा, 4 सितंबर 2025: उत्तराखंड की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान कहे जाने वाले नंदादेवी महोत्सव का समापन बुधवार को माँ नंदा-सुनंदा की भावुक विदाई के साथ हुआ। अल्मोड़ा की गलियों और चौक-चौराहों पर भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा। माँ नंदा को बिटिया की तरह विदा करने की परंपरा ने इस धार्मिक आयोजन को और अधिक भावुक और यादगार बना दिया।
28 अगस्त से आरंभ हुआ यह महोत्सव एक सप्ताह तक चला, जिसके दौरान पूरे नगर में श्रद्धा, भक्ति और उत्साह का माहौल बना रहा। विदाई के क्षण में आस्था के साथ-साथ स्नेह और भावुकता भी देखने को मिली, और साथ ही एक उम्मीद भी कि माँ नंदा अगले वर्ष पुनः अपने भक्तों पर कृपा करने पधारेंगी।
शोभायात्रा का पारंपरिक मार्ग
बुधवार को अपराह्न मंदिर में विधिवत पूजा-अर्चना और परिक्रमा के बाद माँ नंदा-सुनंदा का डोला उठाया गया। हजारों श्रद्धालु माँ के दर्शन और विदाई के लिए मंदिर परिसर में एकत्र हुए।
डोला शोभायात्रा लाला बाजार और बंसल गली मार्ग से होते हुए माल रोड पहुँची। यहां से आगे ड्योरी पोखर में भेंट रश्म निभाई गई। इसके बाद डोला सीढ़ी बाजार मार्ग से मुख्य बाजार पहुँचा और पारंपरिक मार्ग होते हुए दुगालखोला की ओर रवाना हुआ, जहां परंपरागत विधि-विधान के साथ माँ नंदा का विसर्जन किया गया।
पूरे मार्ग में “जय माँ नंदा देवी” के जयकारे गूंजते रहे। मंदिर समिति, मेला कमेटी, जनप्रतिनिधि और हजारों की संख्या में श्रद्धालु शोभायात्रा में शामिल रहे।
आस्था और भावुकता का संगम
नंदादेवी महोत्सव का सबसे अनूठा पहलू यह है कि इसमें माँ नंदा को बिटिया (पुत्री) मानकर विदा किया जाता है। विदाई के क्षणों में जैसे एक बेटी को ससुराल भेजते समय आंसू छलकते हैं, वैसे ही यहाँ भी भक्तों की आँखें नम हो उठीं।
भक्तों का मानना है कि माँ नंदा अपने भक्तों की सुख-समृद्धि और रक्षा के लिए वर्षभर उनके घरों और नगर में विराजती हैं। महोत्सव के दौरान गाँव-गाँव से लोग आकर पूजा-अर्चना करते हैं और विदाई के समय माँ से आशीर्वाद लेकर लौटते हैं।
हजारों श्रद्धालु बने साक्षी
विदाई शोभायात्रा में हजारों श्रद्धालुओं ने शामिल होकर माँ नंदा की एक झलक पाने के लिए घंटों इंतजार किया। मंदिर समिति और मेला कमेटी की ओर से विशेष व्यवस्था की गई थी ताकि श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की कठिनाई न हो।
इस दौरान नगर की सड़कों को फूलों से सजाया गया, ढोल-दमाऊं और स्थानीय वाद्ययंत्रों की थाप पर भक्तों ने भक्ति-भाव से नृत्य किया। बच्चे, युवा और बुजुर्ग—सभी इस धार्मिक माहौल में डूबे नज़र आए।
सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक
नंदादेवी महोत्सव केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। इस महोत्सव में हर वर्ग और समुदाय के लोग एक साथ आते हैं और माँ नंदा की विदाई में शामिल होकर भाईचारे और सामूहिकता का संदेश देते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि नंदादेवी महोत्सव जैसी परंपराएँ पहाड़ की सामाजिक संरचना और संस्कृति को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। यह आयोजन पीढ़ियों से चलता आ रहा है और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आस्था और संस्कृति की अमूल्य धरोहर है।
प्रशासन और समिति की भूमिका
मंदिर समिति और मेला कमेटी ने पूरे आयोजन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए पहले से विस्तृत तैयारी की थी। पुलिस प्रशासन की ओर से सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए थे। जगह-जगह पर सीसीटीवी कैमरे और बैरिकेडिंग लगाई गई थी।
भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए स्वयंसेवकों की टोली भी तैनात रही। चिकित्सा और आपातकालीन सेवाओं की भी व्यवस्था की गई थी ताकि श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो।
भक्तों की उम्मीद: माँ फिर लौटेंगी
भले ही महोत्सव का समापन हो गया, लेकिन भक्तों के मन में एक विश्वास और उम्मीद है कि माँ नंदा अगले वर्ष फिर लौटकर भक्तों को आशीर्वाद देंगी।
डोला विसर्जन के बाद भीड़ में शामिल कई श्रद्धालु भावुक नजर आए। एक बुजुर्ग महिला ने कहा,
“हम हर साल अपनी माँ को बिटिया की तरह विदा करते हैं। विदाई में आंसू जरूर आते हैं, लेकिन यह भरोसा भी रहता है कि माँ फिर जरूर आएंगी।”
अल्मोड़ा का नंदादेवी महोत्सव केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि पर्वतीय आस्था, लोकसंस्कृति और सामाजिक समरसता का जीवंत उदाहरण है। माँ नंदा की विदाई ने जहां भक्तों की आँखें नम कीं, वहीं उनके दिलों को श्रद्धा और उम्मीद से भर दिया।
इस आयोजन ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उत्तराखंड की संस्कृति और परंपरा न केवल सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि यह सामाजिक एकता और धार्मिक आस्था की शक्ति भी है।



