
शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि यदि एफआईआर (FIR) में यह उल्लेख नहीं है कि अपराध पीड़िता की अनुसूचित जाति (SC) की सदस्यता के कारण किया गया था, तो SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत पर रोक नहीं लगाई जा सकती। अदालत ने कहा कि अग्रिम जमानत से इनकार केवल तभी किया जा सकता है जब अनुसूचित जाति या जनजाति होने के आधार पर अपराध किए जाने की प्रत्यक्ष सामग्री FIR में हो।
05 अप्रैल 2025 को चंबा के महिला पुलिस स्टेशन में एक 20 वर्षीय महिला ने साहिल शर्मा के खिलाफ बलात्कार का मामला दर्ज कराया। पीड़िता का आरोप था कि जब वह 17 वर्ष की थी तब आरोपी ने शादी का झांसा देकर उससे संबंध बनाए। एफआईआर में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और POCSO Act की धारा 4 के तहत आरोप लगाए गए।
बाद में पुलिस ने SC/ST Act की धारा 3(2)(v) जोड़ी, यह दावा करते हुए कि आरोपी ने अनुसूचित जाति से संबंधित होने के कारण अपराध किया। हालांकि, FIR में इस बारे में कोई उल्लेख नहीं था। बाद में BNSS की धारा 180 के तहत दिए गए पूरक बयान में ही यह आरोप सामने आया।
न्यायमूर्ति वीरेंद्र सिंह की एकल पीठ ने कहा कि FIR या प्रारंभिक स्थिति रिपोर्ट में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि अपराध पीड़िता की जाति के कारण किया गया। अतः SC/ST Act की धारा 18 के तहत अग्रिम जमानत का निषेध लागू नहीं होता।
अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के शाजन स्कारिया बनाम केरल राज्य (2024) और अल्लारखा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य (2024) मामलों का हवाला देते हुए कहा कि जांच के दौरान दिए गए पूरक बयानों के आधार पर अग्रिम जमानत को खारिज करना उचित नहीं होगा, जब तक FIR में प्रथम दृष्टया आवश्यक तत्व न हों।
अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि आरोपी ने जांच में पूरा सहयोग किया है, और उसकी गिरफ्तारी केवल पूर्व परीक्षण दंड (pre-trial punishment) के समान होगी, जो कानून के विरुद्ध है। अतः अदालत ने निर्देश दिया कि आरोपी को अग्रिम जमानत दी जाए, साथ ही राज्य को यह छूट दी गई कि यदि आरोपी जमानत की शर्तों का उल्लंघन करता है, तो उसे निरस्त करने के लिए आवेदन किया जा सकता है।
यह निर्णय उन मामलों में महत्वपूर्ण नज़ीर के रूप में देखा जाएगा जहां SC/ST अधिनियम के प्रावधानों को FIR में स्पष्ट रूप से लागू नहीं किया गया है, और उन्हें बाद में पूरक बयानों के आधार पर जोड़ा गया है।